“लैला! लैला! लैला! लैला!…” करता मजनूँ दुनिया जहान की खाक छानता फिरता है। चरिंदों-परिंदों के बीच डोलता रहता है। गुदेदार फल खाता है। मजनूँ जो कि शहजादा है, एक शायर है, नर्मदिल शायर, जिसके दिलो-दिमाग पर उसकी लैला इस कदर छाई है कि वह दीवाना शायरी तक भूल जाता है। तख्तो-ताज से तो उसे जैसे कोई सबका ही नहीं। बेटे की दीवानगी वालिद के दिल में आह-सी उतरती है। दर-बदर बेटे को खोजता रहता मजनूँ का पिता इकलौते बेटे की दुनिया के प्रति तौहीनी से परेशान एक बाप है। जिसकी बेटियाँ भी हैं लेकिन बेटा तो एक ही है, वह भी बेजार! अब कौन बढ़ाएगा उसकी नस्ल आगे!
दूसरी तरफ लैला को प्यार के इल्जाम में मिलती है कैद! सूरज की रौशनी तक से पर्दा कर लेने की हिदायत। चाँद-सितारों की छाँव में पलने की उम्मीद और अनचाहे शख्स से शादी की सजा! वो सभी पाबंदीगियाँ जो सदियों से औरतें सहती आ रही हैं। प्यार की पीर में झुलसती लैला को जमजम के ठंढे पानी से भी राहत नहीं मिलती। नबी के निन्यानबे नामों की फेहरिस्त भी सुकून नहीं बख्शती! और तो और प्रेमी मजनूँ भी अंत में पहचानने से इंकार कर देता है। दीवानगी के आलम में वह लैला तक को नहीं पहचानता! अंततः दोनों को अल्लाह के आगोश में पनाह मिलती है। सुकून मिलता है। इस तरह एक ही नाटक दो समानांतर भागों में चलता रहता है। लैला के लिए और! मजनूँ के लिए और! हालाँकि, दोनों की मुश्किलें अलहदा हैं। दोनों परेशान हैं। नाटक में लैला-मजनूँ के साथ एक पूरा का पूरा समाज भी चलता रहता है। स्त्री- विमर्श, सत्ता का त्याग, पुत्रमोह में पड़ा पिता, लड़की होने के बोझ को ढोते लैला के माँ-बाप! और इन सबको अपनी कहानियों में ढालते किस्सागो और पाँच अरबी औरतों का कोरस (जो कभी-कभी अनावश्यक सा लग सकता है! लगता भी है। ) कोरस और किस्सागो कहानी और कहानी के पार्श्व की गुत्थी को दर्शकों से जोड़ने की कड़ी हैं। सभी किरदार, विशेषकर जिन्होंने उम्रदराज किरदारों को निभाया, अपने-अपने किरदारों में तो ढलते ही हैं, दर्शक वर्ग के साथ भी सहज ही जुड़ जाते हैं। जैसे सिर्फ किरदार ही नहीं दर्शक भी लैला-मजनूँ के समय-समाज का हिस्सा हों।
प्रेम, मृत्यु, मजहब, शोक, व्यंग्य और विडंबना कला विधा के कई रंग एक साथ एक ही मंच पर इस नाटक में देखे जा सकते हैं। पात्रों का इतने सलीके से लम्बे-लम्बे संवाद धाराप्रवाह बोलना काबिलेतारीफ है। लेकिन संप्रेषण में कुछेक बार चूकता-सा लगता है। उर्दू के खूबसूरत लच्छेदार वाक्य भी अच्छे तो लगते हैं लेकिन साथ ही, थोड़ी-बहुत उलझन भी पैदा करते हैं। (उलझन और संप्रेषण उन दर्शकों के लिए जो उर्दू के शब्द-लय पकड़ नहीं पाते। ) बाकी, इस संगीतमय नाटक का संगीत, ध्वनि संयोजन, नज़्म और नगमें हों या लोबान का उठता धुंआ! दर्शकों को अंत तक बांधे रखते हैं।
लैला-मजनूँ नाटक में वे ही सबसे कम दिखते हैं। यह शायद इसलिए है कि इस नाटक का उद्देश्य ही पार्श्व में सामाजिकता और समाज विमर्शों को भी समेटे है!
यह इस्माइल चुनारा द्वारा लिखित नाटक है। देवनागरी अनुवाद साबिर इरशाद उस्मानी का है। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय रंगमंडल (nsd repertory) द्वारा प्रस्तुत इस नाटक का निर्देशन किया है राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के पूर्व निदेशक प्रसिद्ध रंगकर्मी-निर्देशक पद्मश्री रामगोपाल बजाज ने। सह निर्देशन व संगीत-ध्वनि राजेश सिंह का है, जो रंगमंडल प्रमुख भी हैं।
वेशभूषा – अम्बा सान्याल , प्रकाश संयोजन – अवतार साहनी, मंच सज्जा-अदिति विस्वास, गति संरचनाा अमित सक्सेना ने किया है।
लैला का किरदार निभाया है मधुरिमा तरफदार ने और मजनूँ बने हैं अनंत शर्मा। लैला की माँ, क़ैस/मजनूँ के पिता के संवाद और उनकी भूमिका विशेष तौर पर अच्छी लगी। संगीत व ध्वनि शानदार है जो दर्शकों की देखने की लय को भी अंत तक बांधे रखती है।
मंच और मंच के परे सभी रंग भूमिकाएँ मंचन में उल्लेखनीय रहीं।
राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के ‘अभिमंच ‘ सभागार में यह नाटक अभी 30 अप्रैल तक चलेगा।
नाटक महत्त्वपूर्ण संभावनाओं से सिक्त है। सभी दृश्यों की कलात्मक और भव्य प्रस्तुति प्रशंसनीय है। इमोशन्स और नाटकीयता से भरपूर! सभी तरह के कला रसिक और रंग प्रेमियों को इसमें कुछ न कुछ मिल ही जाएगा। सभी किरदारों और विशिष्ट प्रातिभ अनुभवी निर्देशक बजाज साहब तथा सह निर्देशक रंगमंडल प्रमुख राजेश सिंह का बेहतर प्रस्तुति के लिए अभिनंदन! सार्थक सृजन की चाह और यात्रा यूँ ही जारी रहे!