दो साल तक चली एक तरफा जंग मे ग़ज़ा एक बार फिर खंडहर बन चुका है। हर तरफ़ मलबा, रोती हुई माएँ, अनाथ बच्चे और उजड़े घर दिखाई दे रहे हैं। कभी खुशियां और ज़िंदगी से भरी गलियाँ अब मौत की गवाही दे रही हैं। इस संघर्ष ने ग़ज़ा को सिर्फ़ एक मानवीय त्रासदी में नहीं, बल्कि एक चेतावनी में बदल दिया है कि सत्ता की जिद, धार्मिक कट्टरता और अंतरराष्ट्रीय राजनीति जब मिल जाती हैं, तो इंसानियत हमेशा हार जाती है। लेकिन सवाल यह है कि इस तबाही का असली गुनहगार कौन है? जवाब मुश्किल है, क्योंकि ग़ज़ा की बर्बादी के कई गुनहगार हैं सबसे पहले इस्राइल, फिर अमेरिका और हमास तीनों अपने-अपने तरीके से इस विनाश के ज़िम्मेदार हैं।
सबसे पहले बात इस्राइल की। कोई भी देश अपनी सुरक्षा को लेकर सतर्क रहने का हक़ रखता है, लेकिन इस्राइल ने जिस तरह से सैन्य जवाबी कार्रवाई के नाम पर ग़ज़ा को लगातार बमों से रौंदा है, वह मानवता के हर सिद्धांत के ख़िलाफ़ है। युद्ध में भले ही दुश्मन का निशाना लेना जायज़ माना जाए, मगर जब स्कूल, अस्पताल, शरणार्थी शिविर और मस्जिदें लक्ष्य बन जाएँ, तो यह सिर्फ़ युद्ध नहीं, बल्कि सामूहिक सज़ा बन जाती है। ग़ज़ा की आधी से ज़्यादा आबादी बच्चों की है इन मासूमों ने न कोई रॉकेट चलाया, न कोई हमला किया फिर भी वही सबसे ज़्यादा मारे गए। इस्राइल की नीतियों ने पूरे फ़िलिस्तीन को एक जेल में बदल दिया है, जहाँ न इंसानियत बची है न उम्मीद।
अब ज़रा बात करते हैं हमास की, 7 अक्टूबर 2023 को उसने जिस तरह का हमला किया, वह न तो आज़ादी की जंग थी और न प्रतिरोध की मिसाल बल्कि उसने युद्ध की आग भड़का दी। उस हमले के बाद जो कुछ हुआ, वह पहले से अंदाज़ा लगाया जा सकता था। हमास ने यह जानते हुए भी कि इस्राइल का जवाब कितना क्रूर होगा, ग़ज़ा के नागरिकों को अपनी राजनीतिक और सैन्य रणनीति की ढाल बना लिया। वह न तो ग़ज़ा की जनता को सुरक्षा दे सका और न ही उन्हें बेहतर जीवन। उसकी कट्टर विचारधारा और सत्ता की भूख ने ग़ज़ा को एक अंतहीन युद्ध के मैदान में बदल दिया है।
हमास की 7 अक्टूबर की हिंसक कार्रवाई ने न केवल इसराइल-फ़लस्तीन संघर्ष को और भड़काया बल्कि लंबे समय से चल रही शांति प्रक्रिया को पूरी तरह पटरी से उतार दिया। जहाँ एक ओर कूटनीतिक प्रयासों और अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता के ज़रिए फ़लस्तीन के लिए न्यायसंगत समाधान की दिशा में कुछ उम्मीदें बन रही थीं, वहीं कट्टरपंथी संगठन हमास के गलत निर्णय ने पूरी प्रक्रिया को विफल कर दिया। इस कार्रवाई से इसराइल को सैन्य कार्रवाई का बहाना मिला, जिससे दोनों पक्षों के बीच हिंसा और अविश्वास की खाई और गहरी हो गई। नतीजतन, जो राजनीतिक समाधान संवाद और कूटनीति से निकल सकता था, वह अब खून-खराबे और प्रतिशोध के चक्र में फँस गया।
अमेरिका की भूमिका भी इस त्रासदी में कम नहीं है। विश्व की सबसे बड़ी ताक़त होने के बावजूद उसने शांति की कोशिशों से ज़्यादा इस्राइल को राजनीतिक और सैन्य समर्थन दिया। हर बार जब संयुक्त राष्ट्र में फ़िलिस्तीन के पक्ष में कोई प्रस्ताव आता है, अमेरिका वीटो का इस्तेमाल कर देता है। उसने अरब दुनिया में लोकतंत्र और मानवाधिकारों के नाम पर युद्ध छेड़े, मगर फ़िलिस्तीन के लिए उसके शब्द खोखले निकले। अमेरिका अगर ईमानदारी से मध्यपूर्व में शांति चाहता, तो वह इस्राइल को संयम बरतने के लिए मजबूर कर सकता था और हमास जैसे संगठनों को राजनीतिक मुख्यधारा में लाने का रास्ता तलाश सकता था। लेकिन उसकी नीति हमेशा शक्ति संतुलन से ज़्यादा अपने सामरिक हितों पर केंद्रित रही।
ग़ज़ा के इस हालात के बीच सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि आम फ़िलिस्तीनी, जो न इस्राइल की सत्ता में हैं, न हमास की नेतृत्व में, सबसे ज़्यादा पीड़ित हैं। वे न तो रॉकेट चाहते हैं, न बम वे सिर्फ़ एक सामान्य जीवन चाहते हैं, जहाँ उनके बच्चे स्कूल जा सकें, नौजवान रोज़गार पा सकें, और बुज़ुर्ग शांति से जी सकें। लेकिन अंतरराष्ट्रीय राजनीति की इस बिसात पर उनकी आवाज़ कहीं दबकर रह गई है।
अब समय आ गया है कि इस्राइल, अमेरिका और हमास तीनों अपनी-अपनी ज़िम्मेदारी स्वीकार करें। इस्राइल को चाहिए कि वह सुरक्षा के नाम पर सामूहिक सज़ा देना बंद करे और ग़ज़ा के पुनर्निर्माण में सहयोग करे। हमास को चाहिए कि वह हथियार छोड़कर लोकतांत्रिक और शांतिपूर्ण संघर्ष का रास्ता अपनाए। और अमेरिका को अपनी भूमिका एक निष्पक्ष मध्यस्थ के रूप में निभानी होगी, न कि एकपक्षीय सहयोगी के रूप में।
ग़ज़ा के मलबे से सिर्फ़ ईंटें नहीं, बल्कि उम्मीदें भी उठाई जा सकती हैं अगर दुनिया सच्चे दिल से चाहे। शांति कोई कल्पना नहीं, बल्कि एक जिम्मेदारी है और जब तक यह जिम्मेदारी हर पक्ष नहीं निभाता, तब तक ग़ज़ा की धरती पर बच्चों की चीखें गूँजती रहेंगी, और हम सब, किसी न किसी रूप में, ग़ज़ा के गुनहगार बने रहेंगे।
(लेखक मध्य पूर्व मामलों के विशेषज्ञ हैं)