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Opinion | ग़ाज़ा के समर्थन में यूरोपीय देशों का बयान, वास्तविकता या छलावा ?

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ग़ाज़ा इस समय केवल युद्ध नहीं, एक सुनियोजित नरसंहार की प्रयोगशाला बन चुका है। इज़रायल के अत्याचारी हमलों और नीतियों ने ग़ाज़ा को क़ब्रिस्तान बना दिया है। ग़ाज़ा पट्टी में इज़रायली अत्याचारों के कारण 50000 हज़ार से ज़्यादा निर्दोष नागरिकों के जनसंहार के बाद अब जाकर यूरोपीय देशों की आंखें खुली हैं। अरब शासकों की तो अभी तक आँखें भी नहीं खुली हैं। वह अपने महलों में आरामदायक गद्दों पर बैचैन की नींद सो रहे हैं। उन्हें इस बात की कोई फ़िक्र नहीं कि, ग़ाज़ा में इज़रायल द्वारा किए गए नरसंहार के बाद अब वहां के लोग भूख के कारण मर रहे हैं।

सात यूरोपीय देशों, आयरलैंड, स्पेन, आइसलैंड, लक्ज़मबर्ग, माल्टा, नॉर्वे और स्लोवेनिया ने, एक साहसी संयुक्त बयान जारी कर दुनिया को यह याद दिलाया है कि ग़ाज़ा में जो हो रहा है, वह कोई प्राकृतिक त्रासदी नहीं, बल्कि एक “मानव-निर्मित त्रासदी” है। मगर इस बयान की गूंज न तो वॉशिंगटन की दीवारों में सुनाई दी, न ही तेल अवीव कब बंकरों में। यूरोपीय देशों का यह बयान एक उम्मीद की किरण की तरह सामने आया है, लेकिन सवाल यह हैकि, क्या यह केवल एक राजनीतिक औपचारिकता है या वास्तव में इन देशों की नीयत में बदलाव आ रहा है?

असल समस्या यह है कि इस प्रकार के बयानों का इतिहास बहुत पुराना है। जब भी ग़ाज़ा जलता है, कुछ देश भावनात्मक बयान देकर अंतर्राष्ट्रीय मंच पर अपनी छवि को “मानवीय” साबित करने की कोशिश करते हैं, लेकिन ज़मीनी स्तर पर कोई ठोस कार्रवाई नहीं होती। यूरोपियन यूनियन में अधिकांश प्रभावशाली देश जैसे फ़्रांस और जर्मनी अब भी इज़रायल के साथ खड़े हैं, और अमेरिका तो खुलकर सैन्य व राजनीतिक समर्थन दे ही रहा है।

इन सात देशों के बयान के बाद भी न तो किसी ने इज़रायल के ख़िलाफ़ प्रतिबंधों की मांग की, न ही हथियारों की आपूर्ति रोकने की बात हुई। न ही यह बताया गया कि क्या यूरोपीय देशों की कंपनियाँ इज़रायली सैन्य उद्योग से अपने रिश्ते ख़त्म करेंगी। ऐसे में सवाल यह बनता है कि क्या यह केवल एक नैतिक प्रदर्शन है या वास्तव में किसी बदलाव की शुरुआत? सच्चाई यह है कि जब तक इन बयानों के साथ ठोस कदम नहीं उठाए जाते, जैसे कि इज़रायल पर आर्थिक प्रतिबंध, अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में केस, और हथियारों की आपूर्ति बंद करना। तब तक यह केवल एक राजनीतिक नाटक ही कहलाएगा।

इज़रायल बीते 70 दिनों से ग़ाज़ा में खाद्य, पानी और दवाइयों की आपूर्ति को रोक रहा है। संयुक्त राष्ट्र और विश्व स्वास्थ्य संगठन ने चेतावनी दी है कि ग़ाज़ा में अकाल कभी भी घोषित किया जा सकता है। बच्चों की मौतें, अस्पतालों की बर्बादी और हजारों लोगों की शहादत इस त्रासदी का जीता-जागता सबूत हैं। ऐसे में यूरोपीय देशों का यह बयान स्वागत योग्य है, परंतु यह पर्याप्त नहीं है।

ग़ाज़ा पर 73 दिनों से जारी इज़रायली नाकाबंदी ने भोजन, पानी और दवाइयों को बंद कर दिया है। 50 हज़ार से ज़्यादा लोग अब तक जान गंवा चुके हैं। संयुक्त राष्ट्र चेतावनी दे चुका है कि ग़ाज़ा में कभी भी अकाल की आधिकारिक घोषणा हो सकती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, दर्जनों बच्चे भूख से मर चुके हैं। सवाल यह है कि, जब दुनिया जानती है कि यह सब इज़रायल कर रहा है तो, इंसाफ़ की आवाज़े इतनी कमज़ोर क्यों हैं?

अमेरिका, जो दुनिया में लोकतंत्र और मानवाधिकार का सबसे बड़ा ठेकेदार बनता है, उसी अमेरिका ने अब तक न केवल इज़रायल का खुला समर्थन किया है, बल्कि उसे हथियार, पैसा और कूटनीतिक संरक्षण भी मुहैया कराया है। ग़ाज़ा की तबाही में हर इज़रायली मिसाइल के पीछे अमेरिकी समर्थन की छाया है। यह चुप्पी नहीं, यह साझेदारी है। यह मौन नहीं, यह मिलावट है एक अपराध में।

आज जब यूरोप के कुछ देश साहस दिखा रहे हैं, तब यह ज़रूरी है कि बाकी दुनिया भी अपनी भूमिका तय करे। क्या मानवता केवल पश्चिमी राजनीतिक हितों के अनुरूप परिभाषित होगी? क्या फिलिस्तीनियों की जानें इतनी सस्ती हैं कि भूख से मरने वालों की चीखें भी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं की दीवारों में दब जाएँ?
अब समय आ गया है कि हम पूछें: क्या इज़रायल मानवाधिकारों की धज्जियाँ उड़ाने के बाद भी विश्व मंच पर ईमानदारी से खड़े हो सकता है? क्या संयुक्त राष्ट्र की चेतावनियाँ केवल एक औपचारिकता बनकर रह जाएँगी? और सबसे अहम प्रश्न यह है कि, क्या हम, आम लोग, इतने लाचार हो चुके हैं कि नरसंहार के सामने सिर्फ सोशल मीडिया पर अफ़सोस ज़ाहिर कर पाते हैं?


ग़ाज़ा का समर्थन केवल एक राजनीतिक स्टैंड नहीं, यह एक नैतिक ज़िम्मेदारी है। इज़रायल को इस अपराध के लिए जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए। अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में, इतिहास के पन्नों में और हर उस ज़मीर की अदालत में, जो अभी ज़िंदा है। अगर पूरी दुनियां इस अत्याचार पर चुप रहती है तो,इसे चुप्पी नहीं, सहमति ,माना जाएगा। इसे इज़रायली अपराध साझेदारी समझा जाएगा। इज़रायली अत्याचार और ग़ाज़ा की भूखमरी पर ख़ामोशी, इंसाफ़ की कब्रगाह बन जाएगी। आज सवाल केवल ग़ाज़ा का नहीं है, सवाल यह है कि क्या इंसाफ़ अब केवल ताक़तवरों के लिए आरक्षित है?

(यह लेखक के निजी विचार हैं। लेखक रिज़वान हैदर मिडिल ईस्ट मामलों के जानकार और पत्रकार हैं।)

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