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किसी भी देश को सशक्त करने की पहली शर्त; सौहार्द और भाईचारा

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पिछले तीन सालों से अमेरिका में रह रहा हूँ. एयरपोर्ट और सरकारी बिल्डिंगों को छोड़ कर आज तक किसी भी पब्लिक प्लेस में मेटल डिटेक्टर नहीं देखा. किसी मॉल में नहीं. किसी कॉरपोरेट दफ़्तर में नहीं. कहीं कोई गार्ड दस्ताने पहन कर लोगों को हाथ नहीं लगा रहा होता ये देखने के लिए कि आपके बैग में या पैंट में बाज़ूका तो नहीं है. आज तक नहीं देखा कि किसी पार्किंग में कोई गार्ड पहिए पर लेटे हुए शीशे को गाड़ी के नीचे घुसा कर देखने की कोशिश करे कि फ़िल्म देखने के नाम पर आने वाले अंकलजी ने पाकिस्तान से बम लाकर गाड़ी के नीचे तो नहीं लगा दिया है?

9/11 के बाद कुछ समय के लिए अमेरिका में मुसलमानों के ख़िलाफ़ माहौल बन गया था. कुछ सालों तक एफ़बीआई ने मुसलमानों को गिरफ़्तार करना शुरू किया था जिसका काफ़ी विरोध हुआ था. विरोध करने वालों में सिविल सोसायटी तो थी ही, कई सांसद भी थे. कुछ समय बाद नेताओं और अमेरिकी सिस्टम को समझ आ गया था कि 9/11 के हमले के चलते अमेरिकी मुसलमानों को टार्गेट करने से समाज को फ़ायदा नहीं नुक़सान ही होगा. धीरे धीरे ये टार्गेटिंग बहुत कम हो गई. मैं अमेरिका के चोटी के मुस्लिम संगठनों के साथ काम करता हूँ और मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि पूरे अमेरिका में सरकारी एजेंसियों द्वारा मुसलमानों के ख़िलाफ़ भेदभाव बहुत ही कम मात्रा में मिलेगा. अमेरिका में मुस्लिम एडवोकेसी का सबसे बड़ा संगठन है Council on American Islamic Relations (CAIR). आप उनकी वेबसाइट पर जाकर इसकी तहक़ीक़ कर सकते हैं.

मुसलमानों का समर्थन

तालिबान, आइसिस, अल क़ायदा से सालों से चल रही दुश्मनी के बाद भी आपको अमेरिकी सिस्टम में लोकल मुसलमानों की मुख़ालिफ़त नहीं मिलेगी. अमेरिका की पैंतीस करोड़ की आबादी में बमुश्किल पचास लाख मुसलमान हैं, यानी डेढ़ फ़ीसदी से भी कम. लेकिन जगह जगह मुसलमान इलेक्शन लड़ते हैं और जीतते हैं. अमेरिकी सांसद और राज्यों के विधायक गोरे-काले सब मुसलमानों का समर्थन माँगते हैं और पाते हैं. पूरे अमेरिका में पुलिस विभाग, मेयर और सिटी काउंसिल के साथ मुस्लिम समाज के बहुत अच्छे रिश्ते होते हैं और सरकार और मुस्लिम समुदाय के लीडरों के बीच लगातार औपचारिक बैठकें होती रहती हैं. अक्सर शुक्रवार को स्थानीय नेता या पुलिस कमिश्नर मस्जिदों में आमंत्रित किए जाते हैं और वो वहाँ ख़ुशी ख़ुशी आकर खाना खाते हैं तो दुआ-सलाम करते हैं. ये सरकारी नुमाइंदे अमूमन ईसाई होते हैं. गोरे, काले, मैक्सिकन, हर प्रकार के लोग होते हैं.

अमेरिका में बाहर से आकर बसे मुसलमान डॉक्टर, इंजीनियर, बिज़नेसमैन, पुलिस अधिकारी, फ़ौजी हर काम कर रहे हैं. यहाँ पैदा हुए मुसलमान बच्चे बड़ी से बड़ी यूनिवर्सिटी में धूम मचा रहे हैं. अमेरिका भर में मुसलमान लोग धूमधाम से अपने त्योहार मनाते हैं. बड़ी बड़ी मसाजिद बनाते हैं. कभी किसी क़िस्म का ख़तरा नहीं होता है कि कोई बाहर के लोग आकर बवाल या दंगा करेंगे.

कितने ही मुसलमानों को मैं जानता हूँ जो पूरी तरह गोरों के इलाक़ों में घर ख़रीद कर रह रहे हैं. उनके वहाँ घर ख़रीदने से किसी के रोकने का सवाल ही नहीं उठता. वो क़ानूनन वहाँ रहते हैं, उनको बग़ैर किसी समस्या के लोन मिलता है. कोई पुलिस उनके घर नहीं आती. कोई गोरे ईसाई उनके घर आकर धमकी नहीं देते.

भारत की ओर देखता हूँ तो मुसलमानों के लिए सिवाए नफ़रत के कुछ नहीं दिखता है. दिन रात पुलिस और एनआईए बेगुनाह मुसलमानों को पकड़ कर जेलों में ठूँस देती है. अदालत और मीडिया पुलिस के भांड बन चुके हैं.

किसी भी देश और समाज को सशक्त करने की पहली शर्त ये है कि सौहार्द और भाईचारा पैदा किया जाए. लेकिन भारत एक पुलिस स्टेट है जहाँ मुसलमानों के प्रति क़ौमी दुश्मनी जानबूझकर कर पैदा की गई है. ये नफ़रत भारत को पाताल में पहुँचाने वाली है.

लेखक: अजित साही – वरिष्ठ पत्रकार

Adil Razvi is an author and writer, as well as the founder of the online news media Razvipost and co-founder of Newsglobal.

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