भारतीय सेना ने एक बार फिर अपनी बहादुरी और कर्तव्यनिष्ठा का परिचय देते हुए ऑपरेशन सिंदूर को ऐतिहासिक सफलता में बदल दिया है। यह ऑपरेशन न सिर्फ सैन्य रणनीति की दृष्टि से महत्वपूर्ण था, बल्कि इससे पूरे देश को गर्व और आत्मविश्वास की अनुभूति हुई। इस अभियान का उद्देश्य कठिन और दुर्गम परिस्थितियों में फंसे नागरिकों की जान बचाना और दुश्मन के मंसूबों को नाकाम करना था। ऑपरेशन के दौरान जवानों ने जिस साहस, एकता और सूझबूझ का परिचय दिया, वह हर भारतीय के लिए प्रेरणास्रोत है।
बर्फ से ढकी पहाड़ियों, खतरनाक रास्तों और अनिश्चित हालातों में भी सैनिकों ने न केवल मिशन को पूरा किया, बल्कि यह सुनिश्चित किया कि एक भी जान की क्षति न हो। ऑपरेशन सिंदूर का नाम ही प्रतीक है “सिंदूर” जो भारतीय नारी की मर्यादा और सम्मान का प्रतीक है। सेना ने इसी मर्यादा की रक्षा के लिए अपने प्राणों की बाज़ी लगा दी। यह मिशन दिखाता है कि भारतीय सेना सिर्फ सीमा पर नहीं, बल्कि हर मोर्चे पर देश की रक्षा में तत्पर है।म इस अभियान की सफलता हमें यह याद दिलाती है कि जब भारत मां की पुकार होती है, तो उसके सपूत जान की परवाह किए बिना दौड़ पड़ते हैं।
हाल ही में अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने एक साक्षात्कार में यह दावा किया कि उन्होंने भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध की स्थिति को केवल इस धमकी से टाल दिया कि अमेरिका दोनों देशों से व्यापार बंद कर देगा। यह बयान न सिर्फ भारत की संप्रभुता और गरिमा पर सीधा आघात है, बल्कि यह भारत की कूटनीतिक शक्ति और आत्मनिर्भरता को भी कमतर आंकने की कोशिश है।
डोनाल्ड ट्रंप अपने विवादास्पद बयानों के लिए मशहूर रहे हैं। उन्होंने हमेशा अमेरिका की घरेलू राजनीति को प्रभावित करने के लिए अंतरराष्ट्रीय मामलों में अपनी भूमिका को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया है। उनका यह नया दावा कि भारत-पाक युद्ध को उन्होंने ‘धमकी’ देकर रोका, उसी प्रवृत्ति का हिस्सा प्रतीत होता है। भारत जैसे परमाणु शक्ति संपन्न, वैश्विक मंच पर मजबूत उपस्थिति रखने वाले देश को ट्रंप की ‘व्यापार बंदी की धमकी’ से डरकर पीछे हटना पड़ा होगा? यह कल्पना करना ही हास्यास्पद है।
ग़ाज़ा और सीरिया में असफ़ल ट्रंप, भारत-पाक सीज़फायर का श्रेय लेना चाहते हैं।
ट्रंप का यह बयान न केवल राजनैतिक दिखावा है बल्कि मध्य-पूर्व में चल रहे वास्तविक नरसंहार से अंतरराष्ट्रीय ध्यान भटकाने की साजिश भी है। जिस समय ट्रंप खुद को शांति का दूत बता रहे हैं, उसी समय इज़राइल ने अमेरिका की खुली राजनीतिक और सैन्य मदद से ग़ाज़ा और सीरिया में तबाही मचा रखी है। ग़ाज़ा पट्टी, जो दुनिया की सबसे घनी आबादी वाले इलाकों में से एक है, वहां इज़राइली सेना द्वारा लगातार बमबारी की जा रही है। अस्पताल, स्कूल, मस्जिदें, और रिफ्यूजी कैम्प तक निशाने पर हैं। इस समय तक हजारों फिलिस्तीनी नागरिक, जिनमें बड़ी संख्या में महिलाएं और बच्चे शामिल हैं, मारे जा चुके हैं।
ट्रंप की नीतियां न तो शांतिप्रिय हैं और न ही न्यायप्रिय
सीरिया में भी इज़रायल द्वारा की गई हवाई हमलों में नागरिक क्षेत्रों को नुकसान पहुंचाया गया है। इन हमलों में अमेरिका ने या तो चुप्पी साध रखी है या सक्रिय रूप से इज़राइल को हथियार और कूटनीतिक सुरक्षा प्रदान की है। ऐसे समय में जब ग़ाज़ा जल रहा है और सीरिया पर बम गिर रहे हैं, ट्रंप का भारत-पाकिस्तान के सीज़फायर का श्रेय लेना यह दर्शाता है कि वह अपनी खोई हुई साख को पुनः स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन दुनिया जानती है कि ट्रंप की नीतियां न तो शांतिप्रिय रही हैं और न ही न्यायप्रिय।
भारत सदैव से अपनी विदेश नीति में ‘गैर-पक्षपाती’ (Non-Aligned) नीति का पालन करता आया है। अमेरिका सहित कोई भी राष्ट्र भारत की युद्ध या शांति नीति को ‘धमकी’ से प्रभावित नहीं कर सकता। भारत ने हमेशा अपनी रक्षा नीति को आत्मनिर्भरता, परिपक्वता और रणनीतिक विवेक के आधार पर संचालित किया है। चाहे कारगिल युद्ध हो, बालाकोट स्ट्राइक या डोकलाम विवाद।
भारत ने हर बार यह साबित किया है कि वह न किसी दबाव से डरता है, न ही युद्ध से पीछे हटता है। अगर भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव में कभी ठहराव आया भी, तो वह भारत की कूटनीतिक बातचीत, अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत का दबाव और सेना की सतर्कता का परिणाम रहा है, न कि ट्रंप जैसे नेता की धमकी का। ट्रंप का यह दावा उस अमेरिका की सोच को उजागर करता है, जो दक्षिण एशिया को केवल अपने हितों की दृष्टि से देखता है। अफगानिस्तान से लेकर इराक़ और ईरान तक, अमेरिका ने हमेशा अपनी ही सत्ता और वर्चस्व को प्राथमिकता देने की कोशिश की है।
भारत और पाकिस्तान के बीच के तनाव को व्यापार के चश्मे से देखने की यह अमेरिकी सोच न सिर्फ अपरिपक्व है बल्कि खतरनाक भी। एक ऐसा देश जिसे अपनी सैन्य शक्ति, जनतांत्रिक मूल्यों और स्वतंत्र विदेश नीति पर गर्व है, उसे यह बताना कि वह किसी अमेरिका के कहने से युद्ध से पीछे हट गया, राजनीतिक नहीं, बल्कि मानसिक औपनिवेशिकता (mental colonialism) का उदाहरण है। भारत में ट्रंप के इस बयान को लेकर राजनीतिक गलियारों और मीडिया में तीखी प्रतिक्रियाएं देखने को मिल रही हैं। कई वरिष्ठ पत्रकारों और विश्लेषकों ने इसे ‘बिना सबूत का राजनीतिक ढकोसला’ बताया है।
पश्चिमी मीडिया और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर भी ट्रंप के इस बयान को प्रमुखता दी गई, लेकिन इज़रायली अत्याचारों को या तो दबाया गया या “सुरक्षा” के नाम पर जायज़ ठहराया गया। ट्रंप के कथित “शांति प्रयास” वास्तव में एक धोखा हैं। जब तक अमेरिका और उसके नेता इज़रायली अत्याचारों को समर्थन देते रहेंगे, तब तक मध्य-पूर्व में शांति की कोई उम्मीद नहीं की जा सकती। ट्रंप जैसे नेताओं के झूठे दावों से सच्चाई को नहीं दबाया जा सकता। यह वास्तविकता है कि, भारतीय सेना ने पहलगाम में हुए कायराना आतंकी हमले का जिस तरह से पाकिस्तान को जवाब दिया है उसने सभी भारतवासियों का सिर गर्व से ऊंचा कर दिया है।
ट्रंप को अगर वास्तव में वैश्विक शांति की चिंता होती, तो वह ग़ाज़ा में भी युद्ध-विराम की उतनी ही शिद्दत से वकालत करते, जितनी उन्होंने भारत-पाकिस्तान के मामले में की। लेकिन उनकी चुप्पी साफ़ बताती है कि यह ‘शांति’ भी उनके लिए एक राजनीतिक उपकरण मात्र है, जिसे वे अपने हित में कभी भी इस्तेमाल कर सकते हैं। फिलिस्तीन और सीरिया के लिए ट्रंप की खामोशी, मानवाधिकारों के नाम पर की जाने वाली अमेरिकी राजनीति का असली चेहरा सामने लाती है। एक ऐसा चेहरा जो भारत में हुए आतंकी हमले की केवल निंदा करके चुप हो जाता है, लेकिन जैसे ही भारतीय सेना अपने शौर्य और बहादुरी का परिचय देते हुए पाकिस्तान पर हमला करती है और आतंकी ठिकानों को तबाह करतीं है, फ़ौरन शांति की अपील करने लगता है।