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Opinion | सेक्युलर पार्टियां और मुसलमान।

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जब उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार थी, 67 मुस्लिम एमएलए जीत कर आये थे, पहली बार आज़ादी के बाद इतने मुसलमान जीते थे, मुज़फ्फरनगर दंगा हुआ, बड़ी तादाद में लोग मारे गए, औरतों के साथ गैंग रेप हुए, एक भी एमएलए उस वक़्त वहाँ नहीं गया, सैफई में जश्न जारी रहा आज़म खान ने तो ध्यान ही नहीं दिया, ऐसे बयान दिए जैसे बिलावजह इस पर बात की जा रही हो।

सत्तर हज़ार से एक लाख मुसलमान माइग्रेट कर गए, गाँव खाली हो गए हद तो तब हुई जब इसके बाद सपा सरकार ने ये कहा कि रिलीफ कैम्प बंद करो, इससे बदनामी हो रही है, असेम्ब्ली में किसने आवाज़ उठाई? पार्टी के गुलाम और पार्टी लाइन से बंधे लोग जो बयान देने और स्पॉट पर जाने से डरते हैं, जो स्टेटमेंट इशू नहीं कर पाते, लिखा हुआ बयान नहीं दे पाते, ऐसी तादाद से क्या फायदा? लानत है उन पर जिनको कुछ याद नहीं। जाओ अगर तादाद पसंद है तो जाओ और तादाद चाहिए तो और यज़ीद, नमरूद या फ़िरऔन के हामी और पैरोकार बन जाओ ऐसी तादाद किस काम की, कि आप खड़े हो कर ऐवान में अपनी बात न कह पाएं, पार्टी आपको बोलने न दे, बोलना चाहें तो इजाज़त न मिले, और ये मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी नहीं अखिलेश की समाजवादी पार्टी थी जिसने मैनफेस्टो में मुसलमानों से जो अहम् वादे किये थे, पांच सालों में उनमें से ज़्यादातर पूरे करना तो दूर, उनकी तरफ देखा भी नहीं और याद दिलाने पर भी मभी जवाब नहीं दिया।

चार आदमी हों, मगर असेम्ब्ली में खड़े हो कर बोल तो पाएं, ये नहीं कि पार्टी ने इजाज़त नहीं दी, हिफ्जुर्रहमान साहब तो आज़ादी के बाद भी हाउज़ में मध्य प्रदेश के सी एम और अपनी पार्टी के रोल पर इतने सख्त हो कर बोल लेते थे, वह तो बहुत मुश्किल हालात थे, तुम से न बोला जाए, ने मेमोरेंडम दिया जाए, न कभी दिक़्क़त हो तो आकर खड़े हो जहांगीरपुरी में बृंदा करात ने बुलडोज़र रोक दिया था, हम एहसान फरामोश नहीं हैं, हम कोई एहसान नहीं भूलते। कोई कम्युनिटी इतना एक तरफ़ा वोट किसी पार्टी को नहीं देती, मगर इसके बाद तुमको नाम लेने और साथ खड़े होने में दिक़्क़त है. आप अपने लिए नहीं लड़ सकते, हमारे लिए क्या लड़ेंगे। जब वोट चोरी कहते हो तो घेराव छोडो, क्या किसी दफ्तर तक मार्च या बड़े शान्तिपूर्ण मगर अहम धरने का एलान नहीं कर सकते थे। जो खुद के साथ सिंसियर न हों, वह किसी और के साथ क्या सिंसियर होंगे।

शरद पवार को ईडी ने बुलाया था, शरद पवार ने कहा था, ‘हम आएंगे, अपने समर्थकों के साथ’. फ़ौरन एजेंसी ने कहा, नहीं आप मत आइये, सब को पता था पवार बुज़ुर्ग हैं मगर 5 लाख आदमी ला सकते हैं, मुंबई में इंसानों का सैलाब आ जाएगा, ये होती है सियासत और ताक़त। जो सड़क पर इन्फ़्लुएनस या कंट्रोल रखता है, वह पावर रखता है। आप के कहने पर एक लाख लोग आ सकते हैं, मगर आपके हर विंग, यूथ कांग्रेस से महिला कांग्रेस, एनएसयूआई से ले कर किसान कांग्रेस और दर्जनों सेक्शन हैं, किस में जज़्बा या इंट्रेस्ट है। बजरंग दल स्ट्रीट कंट्रोल करता है मुल्क की।

बगैर एक एमएलए की पार्टी माणसे आज भी किसी भी दिन देश की आर्थिक राजधानी में बंद करवा कर काम काज ठप करवा सकती है, आप क्या हैं? इंटेरवीन करना तो दूर, साथ खड़े नहीं होते, किसी के साथ क्या, जब आप अपने ही साथ नहीं हैं। ऊपर से आपके छुटभय्ये नेता आ कर टॉन्ट करते हैं कि बीजेपी का झेलना, मतलब तुम्हें भी लुत्फ़ आ रहा है, हमें जो झेलना है वह झेल रहे हैं और झेलेंगे मगर जब आपको कोई सॉलिडरेटी नहीं, तो फिर एहसान किस बात का? जो ग्रुप पांच हज़ार वोट भी एक तरफ़ा देते हैं, उनके लिए भी पार्टी बोलती है, नेता काम करता है, आ कर खड़ा होता है, आप तो पचास हज़ार से दो लाख वोट एक एक असेम्ब्ली में लेते हैं और लोक सभा में हमारे पांच लाख वोट ले कर भी आपका पेट नहीं भरता और उल्टा आपके वह लड़के जो कल तक कॉलेज में कोई झंडा उठाये रहते थे, जो कार्पोरेटर का इलेक्शन नहीं जीत सकते, वह आपके बड़े नेताओं के सलाहकार बन कर उल्टा हम पर धाक जमाते हैं जैसे बड़ा एहसान किया हो आपने।

(शम्स-उर-रहमान अल्वी वरिष्ठ पत्रकार हैं। यह लेख उनके एक्स प्रोफ़ाइल से लिया गया है और इसमें व्यक्त विचार पूरी तरह उनके व्यक्तिगत हैं।)

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