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Opinion | क़तर पर इज़रायली हमले का राजनीतिक संदेश।

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ईरान, इराक़, सीरिया, यमन और लेबनान के बाद अब क़तर भी इज़रायल की आक्रामकता का शिकार बन गया है। क़तर की राजधानी दोहा में इज़रायली विमानों ने उस समय हमला किया जब वहां हमास के सियासी लीडर ग़ाज़ा मसले पर शांति वार्ता में शामिल होने के लिए जमा हुए थे। ये वार्ता अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के इशारे पर हो रही थी, जिसमें क़तर मध्यस्थ की भूमिका निभा रहा था। इस हमले में हमास के उच्च नेतृत्व सुरक्षित रहें, हालांकि उनके कुछ साथी शहीद हो गए। सब जानते हैं कि मध्य पूर्व में अमेरिका के दो सबसे क़रीबी साझेदार हैं—एक इज़रायल और दूसरा क़तर। क़तर ही वह जगह है जहाँ अमेरिका का सबसे बड़ा सैन्य अड्डा मौजूद है।

क़तर पर जिस समय हमला हुआ उसी वक़्त क़तर के प्रधानमंत्री शेख़ मोहम्मद बिन अब्दुल रहमान वॉशिंगटन में अमेरिकी राष्ट्रपति से मुलाक़ात कर रहे थे। क़तर पर हुए इस हमले ने एक बार फिर यह साबित कर दिया कि, अमेरिका और इज़रायल किसी भी देश के सच्चे वफादार नहीं हो सकते। जिन अरब मुल्कों ने दशकों तक अमेरिकी हुकूमत और इज़रायल की सत्ता के साथ कूटनीतिक रिश्ते निभाने की कोशिश की, वे आज सबसे ज्यादा असुरक्षित खड़े नज़र आ रहे हैं। क़तर, जिसने हमेशा मध्यस्थता और शांति की बातचीत को बढ़ावा दिया, वही देश इज़रायली आक्रामकता का निशाना बना।

अमेरिका और इज़रायल की दोस्ती सिर्फ़ अपने हितों तक सीमित
यह केवल एक हमला नहीं था, बल्कि एक बड़ा राजनीतिक संदेश भी था कि, अमेरिका-इज़रायल की दोस्ती दरअसल एकतरफा है, और इनकी “वफादारी” सिर्फ अपने हितों तक सीमित रहती है। दोहा में हमास नेतृत्व पर हुआ हवाई हमला, जिसमें हमास के कई अहम लोग मारे गए, लेकिन शीर्ष नेतृत्व बच निकला, यह दर्शाता है कि, इज़रायल अब अरब दुनिया की सरज़मीं पर सीधे-सीधे युद्ध छेड़ने से भी पीछे नहीं हट रहा। क़तर, जो हमेशा अरब-इस्लामी देशों और पश्चिमी ताकतों के बीच पुल का काम करता रहा है, उस पर हमला करके इज़रायल ने यह साफ कर दिया कि, वह अब किसी भी सीमा या समझौते का सम्मान नहीं करेगा। यह हमला सिर्फ क़तर के खिलाफ नहीं था, बल्कि समूचे अरब जगत और विशेष रूप से उन देशों के लिए चेतावनी थी जो अब भी इज़रायल के साथ सामान्य रिश्तों की उम्मीद पालकर बैठे हैं।

ऐसा नहीं कि क़तर कोई कमज़ोर मुल्क है। उसके पास दुनिया के सबसे आधुनिक युद्धक विमान और हथियार हैं, लेकिन विडंबना यह है कि, उनका रिमोट कंट्रोल अमेरिका के पास है। यही मध्य पूर्व का सबसे बड़ा संकट है। यहाँ के अमीर और ताक़तवर देशों ने अपनी सुरक्षा का ठेका अमेरिका को दे रखा है। अमेरिका इसके बदले खरबों डॉलर वसूल करता है, लेकिन क़तर पर इज़रायली हमले के बाद पहली बार अरब देशों को एहसास हुआ कि, अमेरिका की ख़ुशामद भी सुरक्षा की गारंटी नहीं है। अमेरिका लाख कहे कि, हमला उसकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ हुआ, लेकिन सच यह है कि इज़रायल बिना अमेरिकी इजाज़त के कुछ नहीं करता।

इज़रायल ने जब दोहा पर हमला कर हमास नेताओं को निशाना बनाया तो यह न सिर्फ़ अरब बल्कि पूरी दुनिया के लिए चौंकाने वाला था। इससे इज़रायल ने दिखा दिया कि कोई भी मुस्लिम देश उसकी आक्रामकता से महफ़ूज़ नहीं है। जानकारों का मानना है कि, अब तुर्की के लिए भी ख़तरा बढ़ गया है। हाल ही में इज़रायल ने ईरान की परमाणु साइटों को निशाना बनाया था लेकिन ईरान ने उस हमले का कड़ा जवाब दिया और इज़रायल को झुकना पड़ा। अब इज़रायल ने क़तर को निशाने पर लिया है। लेकिन इस बात की संभावना बहुत कम है कि क़तर कोई जवाब देगा, क्योंकि वह भी बाक़ी अरब देशों की तरह अमेरिका पर निर्भर है।

हमले का असली निशाना हमास नेता ख़लील अल-हय्या बताए जाते हैं, जो ग़ाज़ा युद्ध की शुरुआत से ही मुख्य वार्ताकार रहे हैं। इस हमले में वे तो बच गए, लेकिन उनका बेटा, दफ़्तर का निदेशक और एक क़तरी सुरक्षा अधिकारी समेत छह लोग मारे गए। बीबीसी के विश्लेषक जेरमी बोवेन ने लिखा कि “हमास के साथ शांतिवार्ता के लिए अमेरिकी पहल, दरअसल बहाना था ताकि हमास के नेताओं को एक जगह इकट्ठा कर हमला किया जा सके। क़तर में हमास नेताओं पर हमले साबित करता हैं कि, अमेरिका-इज़रायल युद्ध-विराम के पक्ष में नहीं हैं। इज़रायल, अमेरिका के समर्थन से हमास के बहाने ग़ाज़ा पट्टी पर क़ब्ज़ा करना चाहता है। दोहा में शांतिवार्ता केवल एक छलावा थी।

अमेरिका का दावा है कि, उसने पहले ही क़तर को सूचना दे दी थी, लेकिन क़तर के प्रधानमंत्री के मुताबिक़ सूचना तब मिली जब दोहा पर बम बरस रहे थे। सवाल यह भी है कि अरबों डॉलर की लागत से बनाए गए चार आधुनिक एयर डिफेंस सिस्टम क्यों नाकाम रहे? कहा जाता है कि बस एक बटन दबाकर यह सिस्टम निष्क्रिय कर दिया गया और यह बटन दबाने का अधिकार अमेरिका के पास था। क़तर पर यह हमला उन खाड़ी देशों के लिए चेतावनी है जो भगवान की बजाय अमेरिका पर भरोसा करते हैं।

ग़ाज़ा की तबाही के दौरान अरब देशों ने केवल बयानों तक सीमित रहकर, इज़रायल को खुली छूट दी। अमेरिकी समर्थन और सहायता से ही इज़रायल इतना ताक़तवर हुआ है कि अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों की परवाह किए बिना किसी भी मुस्लिम देश पर हमला कर सकता है। सऊदी अरब और यूएई ने पहली बार इज़रायल की निंदा करते हुए कहा कि, यह हमला अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों की खुली अवहेलना है, मगर ये बयान भी खोखले हैं क्योंकि अमेरिका और इज़रायल जानते हैं कि, ये हाथ पहले से आज़माए हुए हैं।

अरब देशों की खामोशी: एक सामूहिक हार
क़तर पर हमले के बाद भी अरब दुनिया की सरकारों ने केवल “चिंता” और “निंदा” जैसे बयान दिए। सऊदी अरब, UAE और मिस्र जैसे देश, जो खुद को क्षेत्रीय नेता कहते हैं, उन्होंने इज़रायल के खिलाफ कोई ठोस कदम नहीं उठाया। यह खामोशी दरअसल अरब नेतृत्व की कमजोरी और अमेरिका-इज़रायल पर उनकी निर्भरता को उजागर करती है। ग़ाज़ा में नरसंहार हो, लेबनान पर बमबारी हो या क़तर पर हमला—इन देशों के बयान सिर्फ कागज़ी साबित होते हैं।

अमेरिका-इज़रायल की नीतियां और बेवफाई का इतिहास
यह कोई पहली बार नहीं है जब अमेरिका और इज़रायल ने अपने सहयोगियों को धोखा दिया हो।
सऊदी अरब: दशकों तक अमेरिका का सबसे बड़ा तेल आपूर्तिकर्ता होने के बावजूद 9/11 के बाद सऊदी नागरिकों पर शक की निगाह डाली गई।
ईरान (शाह के दौर में): 1970 के दशक तक शाह अमेरिका का सबसे करीबी था, लेकिन जैसे ही हालात बदले, अमेरिका ने पीठ फेर ली।
मिस्र: कैम्प डेविड समझौते के बावजूद अमेरिका ने कभी भी मिस्र को राजनीतिक सुरक्षा नहीं दी; उल्टे अरब स्प्रिंग के दौरान चुप्पी साध ली।
अफ़ग़ानिस्तान और इराक़: “आतंकवाद के खिलाफ युद्ध” के नाम पर पहले सहयोगियों का इस्तेमाल किया, फिर उन्हें असुरक्षा और गृहयुद्ध में धकेल दिया।

क़तर के साथ भी यही हुआ। अमेरिका ने उसके ज़रिए पूरे क्षेत्र पर अपनी सैन्य पकड़ बनाई, लेकिन जब क़तर पर हमला हुआ, तो वाशिंगटन ने सिर्फ बयानबाज़ी तक खुद को सीमित रखा। ग़ाज़ा पर दो साल से जारी इज़रायली आक्रामकता में अब तक कम से कम 65 हज़ार फ़िलिस्तीनी शहीद हो चुके हैं और एक लाख से ज़्यादा घायल हैं, जिनमें औरतें और बच्चे बहुसंख्यक हैं। इज़रायल ने मदद पहुँचने तक को रोक दिया, जिससे भुखमरी की स्थिति पैदा हुई। सौ से ज़्यादा पत्रकार भी मारे गए। अब इज़रायल ने ग़ाज़ा में सेना उतार दी है। प्रधानमंत्री नेतन्याहू ने धमकी दी: “ग़ाज़ा के लोग मेरी बात सुनें, इलाका खाली कर दें, सेना पूरी तैयारी के साथ आने वाली है।”

संयुक्त राष्ट्र ने एक बार फिर फ़िलिस्तीन के लिए दो-राष्ट्र समाधान के प्रस्ताव को मंज़ूरी दी है। लेकिन हालात साफ़ बताते हैं कि ग़ाज़ा के लोग अपनी ज़मीन की हिफ़ाज़त के लिए डटे रहेंगे। इज़रायल जनसंहार कर सकता है, लेकिन ग़ाज़ा पट्टी के निवासियों के हौसलों को नहीं तोड़ सकता।

(यह लेखक के निजी विचार हैं। लेखक रिज़वान हैदर मिडिल ईस्ट मामलों के जानकार और पत्रकार हैं।)

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