भारतीय राजनीति बेहद नाज़ुक दौर से गुज़र रही है. यहां नफ़रत और झूठ का फलता-फूलता कारोबार सत्ता में बने रहने की गारंटी बन गई है. हालांकि, घुटन भरे इस माहौल से अगर कोई शख़्स पूरी ताक़त से लड़ रहा है, तो वह राहुल गांधी हैं. एक ऐसा नेता जो सच्चाई, इंसाफ़, और अमन के लिए चट्टान की तरह खड़ा हुआ है.
राहुल गांधी महज़ एक राजनेता नहीं, बल्कि उस विरासत के वाहक हैं जो आज़ादी की लड़ाई से शुरू होकर संविधान तक पहुँचती है. नेहरू का वैज्ञानिक नज़रिया, इंदिरा गांधी का फ़ौलादी इरादा, और राजीव गांधी की आधुनिक सोच, इन सबके निचोड़ का असर राहुल की राजनीतिक सोच में साफ़ दिखाई देता है.
फ़िलहाल, भारत की राजनीति में साहस, सच्चाई, और संवेदनशीलता जैसे मूल्यों का गला घोंटा जा रहा है. इस माहौल में राहुल गांधी एक जननायक के तौर पर उभरे हैं, जो सिर्फ़ सत्ता से सवाल नहीं पूछते, बल्कि मुश्किलों के भंवर में फंसा दिए गए आमलोगों के बीच में जाकर उनके दर्द और तक़लीफ़ को महसूस करते हैं और उनके सवालों को राष्ट्रीय स्तर पर उठाकर सरकार को अक्सर आइना दिखाते हैं.
राहुल गांधी ने ही मोदी सरकार की नोटबंदी को दुनिया का सबसे बड़ा आर्थिक घोटाला बताया था और वक़्त के साथ उनके दावों पर मुहर भी लगी. उन्होंने बिना लागलपेट के पूछा था कि जिन उद्देश्यों से नोटबंदी लाई गई थी उनका क्या हुआ? क्या कालाधन ख़त्म हुआ? आतंकवाद की कमर टूटी? नक्सलियों ने सरेंडर कर दिया? ज़ाहिर है, ऐसा कुछ नहीं हुआ, लेकिन सनक भरे इस फ़ैसले ने करोड़ों लोगों को लाइन में खड़े होने, अपनी मेहनत की कमाई बचाने के लिए जूझने, और अपमानित होने के लिए अभिशप्त कर दिया था.
राहुल गांधी वही हैं जिन्होंने ग़लत तरीके से देश पर थोप दिए गए जीएसटी को ‘गब्बर सिंह टैक्स’ कहकर उसकी पेचीदगी को उजागर किया था. छोटे और मामूली कारोबारियों की हालत को संसद से लेकर सड़क तक उठाने वाला कोई था तो वह जननायक राहुल गांधी थे.
कोविड काल में जब पूरा देश महामारी से जूझ रहा था, तब मोदी सरकार अपने पिछलग्गू कारोबारियों के लिए “आपदा में अवसर” तलाश रही थी. ऑक्सीज़न की कमी, गंगा में बहती लाशों, और ध्वस्त हो चुकी अर्थव्यवस्था ने देश को झकझोर दिया था. तब राहुल गांधी ने सरकार को लगातार घेरा, सच का सामना करने के लिए मजबूर किया, और पीड़ितों के साथ खड़े होकर उनकी हर मुमकिन मदद की कोशिश की.
देश में बढ़ती भीषण बेरोज़गारी की समस्या पर भी राहुल गांधी इस सरकार को नींद से जगाते रहे. उन्होंने बार-बार कहा कि युवाओं को रोज़गार देना प्राथमिकता होनी चाहिए, लेकिन सरकार नौकरियों के नाम पर सिर्फ़ इवेंट मैनेजमेंट करती रही. आज पूरा देश बेरोज़गारी जैसी जकड़न से जूझ रहा है, देश के युवा रोज़गार के लिए दर-दर भटक रहे हैं भाजपा और मोदी सरकार युवाओं के मुद्दे पर बात करने से क़तरा रही है, ऐसे वक्त राहुल गांधी ने उन युवाओं का हाथ थामा और पूरे देश भर में उनकी लड़ाई को लड़ रहे हैं.
कृषि कानूनों के विरोध में जब देश के किसान सड़कों पर उतरे और सैकड़ों किसानों की जान चली गई, तब भी राहुल गांधी ने खुलकर किसानों का समर्थन किया. उनकी मांग थी कि ये “काले क़ानून” वापस लिए जाएं और आख़िरकार लंबे संघर्ष और सैकड़ों किसानों की मौतों के बाद सरकार को इन क़ानूनों को वापस लेना पड़ा.
राहुल गांधी का विरोध सिर्फ़ आम जनमानस विरोधी नीतियों से नहीं है, बल्कि सत्ता और बड़े उद्योगपतियों के गठजोड़ से भी है. जब उन्होंने अडानी-अंबानी और मोदी सरकार के साथ क़रीबियों को लेकर सवाल उठाए, तो उन्हें संसद से निलंबन, घर से बेदख़ली, और दूसरी क़ानूनी कार्रवाइयों का सामना करना पड़ा. फिर भी, वह झुके नहीं और लड़ते रहे.
इलेक्टोरल बॉन्ड जैसे मुद्दे को राहुल गांधी ने आम जनता के सामने लाकर साफ़ किया कि किस तरह से पारदर्शिता के नाम पर लोकतंत्र की नींव को खोखला किया जा रहा है. सुप्रीम कोर्ट की दख़लअंदाज़ी के बाद जो सच्चाई सामने आई, वह राहुल गांधी के सवालों की पुष्टि थी.
चीन के मुद्दे पर चुप्पी साधे बैठी सरकार के ख़िलाफ़ राहुल गांधी ने बार-बार पूछा कि हमारी ज़मीन पर कब्ज़ा क्यों हुआ, और प्रधानमंत्री क्यों चुप हैं? राहुल गांधी ने संसद से लेकर राजनीतिक रैली तक में, भारतीय ज़मीन पर चीनी क़ब्ज़े के ख़िलाफ़ लगातार सवाल खड़े किए, लेकिन सरकार और बीजेपी उन सवालों को दबाकर मुद्दे को भटकाती नज़र आई.
जातीय जनगणना की मांग भी राहुल गांधी की एक अहम पहल रही है. उन्होंने पिछड़ों, दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों, और ग़रीबों की सच्ची स्थिति जानने और उन्हें उनका वाजिब हक़ दिलाने के लिए यह आवाज़ उठाई और सरकार को मजबूर होकर फ़ैसला लेना पड़ा.
राहुल गांधी का संघर्ष व्यक्तिगत नहीं है, यह एक विचारधारा की लड़ाई है, जहां एक ओर लोकतंत्र, समता, और न्याय के मूल्य हैं, वहीं दूसरी ओर नफ़रत, भेदभाव, और सत्ता की भूख में झूठ और नफ़रत की खेती जन्म दी जा रही है. राहुल गांधी पर कई बार ईडी, सीबीआई, इनकम टैक्स जैसी संस्थाओं के ज़रिये दबाव बनाया गया, लेकिन वह हर बार पहले से और मज़बूत होकर लौटे. उनकी साफ़गोई, सच्चाई, और ईमानदारी उन्हें मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में अलग बनाती है.
यह वक्त देश की जनता के लिए भी निर्णायक है. उन्हें तय करना होगा कि वे नफ़रत की राजनीति के साथ खड़े रहना चाहते हैं या एक ऐसे नेता के साथ जो सबको साथ लेकर चलने की बात करता है. राहुल गाँधी की भारत जोड़ो यात्रा सिर्फ एक राजनीतिक अभियान नहीं बल्कि वह नफ़रत और झूठ के खिलाफ एक राष्ट्रीय चेतना का आंदोलन था. दक्षिण से कश्मीर तक, हज़ारों किलोमीटर पैदल चलकर राहुल गांधी ने ये साबित किया कि एकता, मोहब्बत, और सच्चाई अभी भी इस देश की आत्मा हैं.
इस यात्रा ने सिर्फ़ भाजपा की राजनीति को ही नहीं, बल्कि पूरे देश को आईना दिखाया कि असली मुद्दे बेरोज़गारी, महंगाई, शिक्षा, स्वास्थ्य और समानता हैं. आज जब लोकतंत्र को ‘न्यू इंडिया’ के नाम पर बदला जा रहा है, तब एक ऐसा नेता ज़रूरी है जो संविधान की आत्मा को बचाए रख सके. उनकी राजनीति मोहब्बत की दुकान है उस नफ़रत के बाज़ार में, जिसे सत्ता ने बढ़ावा दिया है. यह लड़ाई सिर्फ सत्ता परिवर्तन का नहीं, भारत के संविधान की रक्षा का चुनाव है.
राहुल गांधी आज एक व्यक्ति नहीं, एक विचार हैं जो हर उस भारतीय के दिल में है जो सच्चाई, समानता, और न्याय में विश्वास करता है.
(लेखिका उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी की प्रवक्ता हैं)