भारत के बदलते हुए राजनीतिक और सामाजिक हालात में सुन्नी ख़ानकाही (बरेलवी) मुसलमानों के सामने सबसे बड़ा संकट नेतृत्व का है। उम्मत बिखराव का शिकार है और हर समूह अपनी सीमित सोच में कैद है। ऐसे वक़्त में सुन्नी मुसलमानों को एक ऐसे रहनुमा और प्लेटफ़ॉर्म की ज़रूरत है जो सीमाओं से ऊपर उठकर क़ौमी स्तर पर उनकी नुमाइंदगी कर सके।
यही किरदार ऑल इंडिया उलेमा व मशाइख़ बोर्ड (AIUMB) और इसके संस्थापक हज़रत अशरफ़े मिल्लत मौलाना सैयद मोहम्मद अशरफ किछौछवी ने अदा किया है। उन्होंने हमेशा समझ-बूझ, बातचीत और सूफ़ियाना हिकमत के ज़रिए मिल्लत के हित में काम किया और एक ऐसा रास्ता दिखाया जो टकराव नहीं बल्कि तामीरी (रचनात्मक) ताल्लुक़ात और अमली-सियासी संवाद पर आधारित है।
हज़रत अशरफ़े मिल्लत ने बहुत पहले समझ लिया था कि भारत जैसे लोकतांत्रिक और बहुलवादी देश में मुसलमानों के मसले टकराव से नहीं, बल्कि हुकूमत से संवाद और तामीरी रिश्तों के ज़रिए हल हो सकते हैं। इसी मक़सद से उन्होंने आलमी सूफ़ी कॉन्फ़्रेंस के ज़रिए एक ऐसा प्लेटफ़ॉर्म बनाया जो दिनी क़ियादत और सियासी निज़ाम के बीच सकारात्मक और इज़्ज़तदार पुल बन सके।
लेकिन अफ़सोस, कुछ सीमित और तंगनज़र हलक़ों ने इस कोशिश को न सिर्फ़ ग़लत समझा बल्कि अपनी मसलकी तंगदिली में इसे नुक़सान पहुँचाया। अगर उसी वक़्त हज़रत अशरफ़े मिल्लत की दूरअंदेशी पर भरोसा करके AIUMB को मज़बूत किया गया होता, तो आज हालात बिल्कुल अलग होते।
मौलाना तौक़ीर रज़ा ख़ान का वाक़या और हमारी बेबसी
आज जब मौलाना तौक़ीर रज़ा ख़ान, जो बरेली की ख़ानकाही रिवायत के नामवर रहनुमा और इत्तेहादे मिल्लत काउंसिल के सरबराह हैं, जेल में हैं — तो पूरी उम्मत ख़ामोश है। कोई तंजीम, कोई तहरीक, कोई मज़हबी इदारा ऐसा नहीं जो उनकी रिहाई के लिए हुकूमत से असरदार बातचीत करने की हैसियत रखता हो। यह दुखद हक़ीक़त बताती है कि अगर हमने अतीत में ऑल इंडिया उलेमा व मशाइख़ बोर्ड को मज़बूत किया होता, तो आज हमारे पास एक मुत्तहिद, इज़्ज़तदार और क़ौमी सतह पर क़ाबिले-ए-एतबार प्लेटफ़ॉर्म होता, जो सरकार से बात करने और उम्मत के मसले असरदार तरीक़े से रखने की ताक़त रखता।
हज़रत अशरफ़े मिल्लत की हिकमत और सूफ़ियाना क़ियादत की अहमियत
हज़रत अशरफ़े मिल्लत हमेशा इस बात पर ज़ोर देते हैं कि सूफ़ियाना क़ियादत ही वह संतुलन पैदा कर सकती है जो उम्मत को इंतिहापसंदी से बचाकर क़ौमी धारे में इज़्ज़त दिला सके। उन्होंने मुल्क के कोने-कोने में मोहब्बत, भाईचारे और एकता का सूफ़ी पैग़ाम पहुँचाया। उनकी क़ियादत में AIUMB ने न सिर्फ़ मदारिस और ख़ानकाहों को जोड़ा, बल्कि मुसलमानों को यह सिखाया कि अपने मसले बाअसर और शालीन तरीक़े से कैसे उठाए जाएँ।
उम्मत के लिए पैग़ाम-ए-इत्तेहाद
आज ज़रूरत है कि हम सब ग़ैरज़रूरी झगड़े और मसलकी मतभेद भुलाकर हज़रत अशरफ़े मिल्लत की दूरअंदेशी पर एतबार करें, AIUMB के प्लेटफ़ॉर्म को मज़बूत बनाएं और अपने नौजवानों को सूफ़िया के मसलक-ए-मोहब्बत व बर्दाश्त पर चलाएं। यही रास्ता है जिससे मुसलमानों की आवाज़ सुनी जाएगी, और मौलाना तौक़ीर रज़ा ख़ान जैसे हालात फिर दोहराए नहीं जाएँगे।















