शेखपुरा की धरती सदियों से सूफ़ी संतों की रूहानी खुशबू से महकती रही है। यह ज़िला उन फकीरों की कर्मभूमि रहा है, जिन्होंने प्रेम, इंसानियत और भाईचारे का संदेश दिया। लेकिन समय के साथ, इन सूफ़ी संतों के नाम और उनके योगदान इतिहास के पन्नों में धुंधले पड़ते जा रहे हैं। उनकी शिक्षाएं, सामाजिक कार्य और उनकी दरगाहों से जुड़ी जानकारियां धीरे-धीरे गुमनामी की ओर बढ़ रही हैं, जिससे एक महत्वपूर्ण आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत लुप्त होने के कगार पर है।
शेखपुरा के विभिन्न हिस्सों में कई सूफ़ी दरगाहें मौजूद हैं, लेकिन उनके ऐतिहासिक महत्व का उचित दस्तावेज़ीकरण नहीं हुआ है। उदाहरण के लिए, जमुआरा में स्थित हज़रत सैयद शाह जमालुद्दीन जाजनेरी की मज़ार लोगों की आस्था का केंद्र है, मगर इनके बारे में लिखित जानकारी बहुत सीमित है। इसी तरह, बड़ी दरगाह में हज़रत शाह शोएब फिरदौसी, चोंडदरगाह में हज़रत सैयद शाह यूसुफ़ दुल्हा जाजनेरी, नीरपुर में हज़रत नूरुद्दीन, मटोखर में हज़रत ख़्वाजा इसहाक मगरबी, चरुआंवाँ में हज़रत मख़्दूम शाह आमूँ और दल्लू मोड़ के पास हज़रत मन्नान की दरगाहें भी ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण हैं, लेकिन इनके बारे में विस्तृत और प्रमाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है।
इस विषय पर शोध कर रहे लेखक सय्यद अमजद हुसैन, जिनकी पुस्तक “बिहार और सूफ़ीवाद” प्रसिद्ध राजमंगल प्रकाशन से प्रकाशित होने वाली है, कहते हैं, “सूफ़ी संतों ने ऐसे समय में प्रेम और भाईचारे का संदेश दिया, जब समाज विभाजन और संघर्ष की स्थिति में था। उनकी शिक्षाएं आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं, जितनी पहले थीं। लेकिन यह दुखद है कि उनके योगदान पर बहुत कम दस्तावेज़ीकरण हुआ है। यदि हमने अभी इस पर ध्यान नहीं दिया, तो यह अनमोल विरासत आने वाली पीढ़ियों के लिए खो जाएगी।”
शेखपुरा के गांवों और कस्बों में मौजूद इन सूफ़ी दरगाहों को लोकमान्यता तो प्राप्त है, लेकिन इनका आधिकारिक इतिहास संकलित नहीं किया गया है। कई सूफ़ी संतों के नाम सिर्फ़ लोककथाओं में बचे हैं, जो समय के साथ धुंधले होते जा रहे हैं। यह केवल धार्मिक ही नहीं, बल्कि ऐतिहासिक और सांस्कृतिक क्षति भी है।
आज आवश्यकता इस बात की है कि शेखपुरा के भुला दिए गए सूफ़ी संतों के जीवन, उनकी शिक्षाओं और उनके सामाजिक योगदान पर शोध किया जाए और इसे किताबों, लेखों, और डॉक्यूमेंट्रीज़ के रूप में संरक्षित किया जाए। सूफ़ीवाद केवल इबादत तक सीमित नहीं था, बल्कि यह समाज के हर तबके को जोड़ने की एक कोशिश थी। ऐसे में इस विरासत को संजोना हमारी सामूहिक ज़िम्मेदारी बनती है।
यदि इस दिशा में ठोस प्रयास किए जाएं, तो न केवल शेखपुरा की सूफ़ी परंपरा एक नए रूप में सामने आएगी, बल्कि यह आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेम, सौहार्द्र और मानवता का संदेश देने का काम भी करेगी।