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अबुल अला मौदूदी : एक ऐसी मुस्लिम शख्सियत जिनको आज का मुसलमान भुलाता जा रहा है

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20वीं सदी के सबसे प्रभावशाली इस्लामी विचारकों में से एक मुफ़स्सीर ए क़ुरान जनाब मोलना सैयद अबुल अला मौदुदी एक प्रसिद्ध धार्मिक विद्वान और जमात-ए-इस्लामी के संस्थापक थे। उनके विचार, लेक्‍चर और उनके लेखन ने दुनिया भर में इस्लामी आंदोलनों के विकास पर गहरा प्रभाव डाला | मौदुदी उन गिने चुने लोगों मे से एक हैं जिनकी नमाज़ जनाज़ा की प्रार्थना काबा में गायबाना में अदा की गई थी.


मौलाना मौदुदी का जन्म 1903 में हुआ था । मौलाना के जन्म के समय की परिस्थितियों के अध्ययन से पता चलता है कि अंग्रेजों ने हजार साल पुरानी मुस्लिम सरकार को हटाते ही मुस्लिम एव भारती संस्कृति को हटाने केलिए सबसे पहले इन ३ महत्वपूर्ण कार्य को अंजाम दिया । 1. इस्लाम ने शरीयत को खत्म कर दिया। (सिर्फ मुसलमानों के पास पर्सनल लॉ को रहने दिया) | 2. मुसलमानों के जयेदादो को कब्ज़े  मे ले लिया |3 सिक्षा की व्यवस्था बदली गई और हर जगह अंग्रेजी व्यवस्था थोपी गई। उधर, मुसलमानों की संस्कृति और मज़हब क सिर पर कई खतरे मंडरा रहे थे, कई नए फ़ितने पैदा हुए। कहीं क़ादियानी फ़ितने ने सर उठाया, तो नास्तिकता के फ़ितने ने, साथ ही कम्यूनिसम का प्रलोभन, तो कहीं हदीस से इनकार का प्रलोभन। इस दौर मे इतने फ़ितनो ने सिर उठाया की मुसलमानों की आस्था को बचाना मुश्किल हो गया। इन हालात में इन सभी प्रलोभानों के खिलाफ जिन लोगों ने अपनी जिम्मेदारियों को निभाने का कम किया उन में मौलाना अबुल कलाम आजाद और मौलाना मुहम्मद अली जौहर और दीगर का नाम नमायान है, साथ ही अल्लामा इकबाल ने उनकी बौद्धिक संपदा को अपने निबंध पुस्तकें तथा भाषण के ज़रिए लोगों मे इस्लामी सोच को वापस लाने का सार्थक प्रयास कर रहे थे| उनके प्रयासों ने मौलाना मौदूदी इलमी जन्दगी की शुरुआत मे मोलना की सोच को प्रेरित किया।


सैयद अबुल आला मौदुदी का जन्म औरंगाबाद, दक्कन के एक धार्मिक परिवार में 1321 हिजरी के अनुसार 1903 में हुआ था। आपके पूर्वजों में एक प्रसिद्ध बुजुर्ग ख्वाजा कुतुबुद्दीन मौदूद चिश्ती थे जिनके नाम पर मौलाना के खानदान को मौदुदी कहा जाता है। शुरआत में घर पर ही उनकी शिक्षा हुई। बाद में उन्हें सीधे मदरसा फरकानिया औरंगाबाद की 8वीं कक्षा में भर्ती कराया गया। 1914 में उन्होंने मौलवी की परीक्षा दी और पास हुए। उस समय उनके माता-पिता औरंगाबाद से हैदराबाद शिफ्ट हो गए जहां सैयद मौदुदी को मौलवी आलिम क्लास में भर्ती कराया गया था। उस समय दारुल उलूम के अध्यक्ष मौलाना हमीदुद्दीन फरही थे जो मौलाना अमीन अहसान इस्लाही के शिक्षक भी थे। 1914 में उन्होंने मौलवी की परीक्षा दी और पास हुए। उस समय उनके माता-पिता औरंगाबाद से हैदराबाद शिफ्ट हो गए जहां सैयद मौदुदी को मौलवी आलम की मंडली में भर्ती कराया गया था। उस समय दारुल उलूम के अध्यक्ष मौलाना हमीदुद्दीन फरही थे जो मौलाना अमीन अहसान इस्लाही के शिक्षक भी थे।


क्योंकि सैयद मौदुदी के पास लेखन का ज़बरदस्त हुनर था, इसलिए उन्होंने एक पत्रकार के रूप में अपना करियर शुरू किया और समाचार पत्र “मदीना” बिजनौर (उत्तर प्रदेश), “ताज” जबलपुर और जमीयत उलेमा हिंद के दैनिक “अल जमात” दिल्ली सहित कई समाचार पत्रों में संपादक के रूप में काम किया।

कहते हैं के जिस समय सैयद मौदुदी “अल जामिया” के संपादक थे। उस समय श्रद्धानंद नाम के एक व्यक्ति की एक मुस्लिम युवा ने हत्या कर दी थी, जिसके बाद पूरे भारत में कोहराम मच गया। कट्टरपंथियों ने इस्लाम धर्म पर हमला करना शुरू कर दिया और कहा जाने लगा कि इस्लाम तलवार और हिंसा का धर्म है।


इस पर आहत होकर मौलाना मुहम्मद अली जौहर ने शुक्रवार के खतबे के दौरान कहा की काश कोई उठे और सही अंदाज़ में इस्लाम में जिहाद के मुद्दे को पूरी तरह से समझाए, ताकि आज इस्लाम के खिलाफ जो गलतफहमियां फैलाई जा रही हैं। वे समाप्त होजाएँ| मौलाना सैयदबुलाला मौदुदी लिखते हैं कि: “भाषण सुनने वालों में से एक भी था। जब मैं वहां से उठा तो यह सोचकर उठा कि क्यों न मैं खुद अल्लाह के नाम पर पूरी कोशिश करूं। इस पर सैयद मौदुदी ने अल-जिहाद फ़ै-उल-इस्लाम नामक पुस्तक लिखी। इस ज़बरदस्त किताब का लोहा हर एक ने माना, उस वक्त सैयद मौदुदी की उम्र महज 24 साल थी। यहीं से मोलना क्रांतिकारी जीवन की शुरुआत हुई। इस किताब के बारे में अल्लामा इकबाल ने कहा: “यह जिहाद के इस्लामी सिद्धांत और शांति और युद्ध के कानून पर एक उत्कृष्ट ग्रंथ है, और मैं हर विद्वान व्यक्ति को इसका अध्ययन करने की सलाह देता हूं।
1932 से 1938 का दौर उनके जीवन की एक महत्वपूर्ण अवधि है। ये पाँच साल का दौरानिया मौलाना मौदूदी की ज़िंदगी का अहम दूर है जिसमें मौलाना की वलवला अंगेज़ सदा तर्जुमान उल-क़ुरआन के नाम से शुरू हुई | मैगज़ीन को अव्वल दिन से बिना मुबालग़ा मौलाना के अज़ीम मिशन की फ़िक्री बुनियाद का नाम दिया जा सकता है | मुजल्ला तर्जुमान उल-क़ुरआन में मौलाना ने एक मज़मून लिखा जिसका अनवान था

“दीवानों की ज़रूरत” इसमें एक ऐसी इजतिमाईयत की ज़रूरत को वाज़िह किया जो इस्लाम की सही तर्जुमानी करने वाली हो | उसकी पहली कड़ी इदारादार उल-इस्लाम का क़ियाम है ,तहरीक दार उल-इस्लाम में चार लोग रफ़ीक़ कार बने मौलाना सदर उद्दीन इस्लाही ,चौधरी नज़ीर साहिब , वग़ैरा (दो लोगों के नाम तलाश के बावजूद ना मिल सके).


इसी दौरानिया में मौलाना मौदूदी की मुलाक़ात अल्लामा इक़बाल से हुई और मुफ़क्किर इस्लाम अल्लामा इक़बाल ने मौलाना मौदूदी से दौरान गुफ़्तगु एक ऐसी इजतिमाईयत की ज़रूरत को ज़ाहिर किया जो ख़ालिस इस्लाम की तर्जुमान हो,क्योंकि मुस्लिम लीग के नाम पर तशकील पाने वाली इजतिमाईयत इस्लाम की तर्जुमान नहीं बन सकती थी. इस गुफ़्तगु का लुब्ब-ए-लुबाब यही था कि किसी इस्लामी तहरीक की बुनियाद डाली जाये . उसके अलावा कहा जाता है के इकबाल ने मौलाना मौदूदी से पंजाब आने को कहा, इसीलिए इस मुलाक़ात के बाद मौलाना मौदूदी ने हैद्रबाद छोड़ा और पंजाब चले आए, और उन्‍होने एक किताब “मुस्लमान और मौजूदा सयासी कश्मकश” के अनवान से लिखी जिसमें एक इस्लामी तहरीक की ज़रूरत को ज़ाहिर किया | इस किताब में दर्ज उस ज़रूरत को जिन अश्ख़ास ने क़बूल किया इन्होंने तर्जुमान उल-क़ुरआन के दफ़्तर में अपने अपने ख़ुतूत मौलाना मौदूदी के नाम रवाना किए | और इस पर अपनी शमूलीयत का इरादा ज़ाहिर किया |

इसके बाद तर्जुमान उल-क़ुरआन के पर्चे में ये ऐलान जारी किया गया कि 25 अगस्त सन1941 ۔यक्म शाबान को इस तहरीक का आग़ाज़ करने के लिए एक इजतिमा का इनइक़ाद किया जा रहा है । 25 अगस्त को पछत्तर अफ़राद हिन्दोस्तान के गोशा गोशा से इस्लामीया पार्क लाहौर की मुबारक मस्जिद के सामने तर्जुमान उल-क़ुरआन के दफ़्तर में जमा हुए । (बुन्यदि अरकान की सारी लिस्ट देखने के बाद अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि मौलाना मौदूदी के असाधरण असरात पूरे हिन्दोस्तान पर छप चुके थे। इस दिन हर एक ने अपना तआरुफ़ दिया, और तहरीक से मुताल्लिक़ अपने अपने राय का इज़हार किया. 26 अगस्त दो शाबान को लोग फिर इजतिमा गाह में जमा हुए | मौलाना मौदूदी के एक तारीख़ी ख़िताब से इजतिमा का आग़ाज़ हुआ | खिताब से पहले मौलाना ने इजतिमा के पस-ए-मंज़र को जाहिर किया जो एक तारीख़ी दस्तावेज़ की हैसियत रखता है.
मौलाना ने कहा कि इसतरह आज आप लोगों का जमा होना कोई इत्तिफ़ाक़ी हादिसा नहीं कि एक ज़ोरदार मौज उठी और जमा हो गई बल्कि ये मेरी तेराह साला कोशिशों का नतीजा है जो मैंने तर्जुमान उल-क़ुरआन के नाम से शुरू की थी । इस जुमला के अंदर मौलाना के सच्चे ख़ाबों की ताबीर है , एक मौज के दरिया बनने की ताक़त का पैग़ाम है , और आज ८० साल हुए ये दरिया रवाँ-दवाँ है जो छब्बीस अगस्त 1941 को लाहौर के इस तासीसी इजलास से बह निकला। आज भी इसमें उठने वाली हर मौज मिसाली, और हर लहर सोज़-ए-दरूँ से बुलंद फ़व्वारा बनने की ताक़त रखती है।अल्हम्दुलिल्ला
भारत के बंटवारे के बाद सैयद मौदूदी पाकिस्तान आ गए। उन्हें पाकिस्तान में इस्लामी व्यवस्था लागू करने की मांग करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया | गिरफ्तारी से पहले जमात के अखबार “कोसर”, जहां नू और दैनिक “तसनीम” भी बंद कर दिए गए थे। उन्हें 20 महीने बाद 1950 में रिहा किया गया | 1953 में, सैयद मौदुदी ने “कादियानी मसला” नामक एक छोटी सी किताब लिखी, जिसके लिए उन्हें एक सैन्य अदालत ने गिरफ्तार कर लिया और मौत की सजा सुनाई। देश के अलावा इस्लामी जगत में भी मौत की सजा के खिलाफ कड़ी प्रतिक्रिया हुई थी। आखिरकार सरकार ने मौत की सजा को 14 साल जेल में बदल दिया। हालाँकि, वह दो साल और ग्यारह महीने तक जेल में रहा और आखिरकार सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश के तहत रिहा कर दिया गया।


मौलाना मौदुदी ने नई पीढ़ी को न केवल झूठे विचारों और सिद्धांतों का आलोचनात्मक मूल्यांकन करना सिखाया, बल्कि पश्चिमी विचार और सभ्यता को बेहतरीन शैली और तर्कपूर्ण तर्क के साथ आंकना भी सिखाया और इसे एक इस्लामी आंदोलन के रूप में अस्तित्व दिया। दुनिया। सैयद मौदुदी ने हर झूठे विचार और सिद्धांत को खारिज कर दिया, खासकर उन विचारों को जो पश्चिमी और यूरोपीय दुनिया से आए थे, उनको परीक्षण करते हुए उनको रद्द करना सिखाया.


मौलाना की उपलब्धियों का वर्णन करते हुए प्रोफेसर रज़ी इस्लाम नदवी लिखते हैं की मौलाना मौदुदी ने न केवल झूठे विचारों और विचारों की पौल खोली, बल्कि इस्लाम की सच्चाई को भी स्पष्ट किया और साथ ही इस्लाम को दुनिया के लिए एक संपूर्ण जीवन प्रणाली के रूप में प्रस्तुत किया। आज 21वीं सदी अपनी मंजिल की ओर बढ़ रही है, इस लिहाज से सैयद मौदूदी के विचार, बौद्धिक विरासत, तर्क और पद्धति को आगे बढ़ाने की तत्काल आवश्यकता है।

(तल्हा हुसैन गुलबर्ग्वी एक स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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