बिस्मिल ने लिखा था, “अशफ़ाक उल्ला को सरकार ने राम प्रसाद का दायां हाथ बताया है. अशफ़ाक कट्टर मुसलमान होते हुए भी राम प्रसाद जैसे कट्टर आर्यसमाजी का क्रांति में दाहिना हाथ हो सकता है, तो क्या भारत के अन्य हिन्दू-मुसलमानआजादी के लिए अपने छोटे-मोटे लाभ भुलाकर एक नहीं हो सकते?
4 फरवरी, 1922 को चौरी-चाैरा में घटित हिंसक वारदात के विरोध में 12 फरवरी को गांधी जी ने असहयोग आन्दोलन वापस ले लिया . आंदोलन के दौरान देश में अंग्रेजों को उखाड़ फेंकने के लिए जोश की लहर थी.
अचानक आंदोलन वापसी ने लोगों को निराश किया. युवा गुस्से से भरे थे. वे फिर संघर्ष शुरू करना चाहते थे. शांतिपूर्ण प्रयासों से उन्हें कोई उम्मीद नहीं थी. सशस्त्र संघर्ष के लिए हथियारों की जरूरत थी. उसके लिए पैसा कैसे जुटे ? क्रांतिकारियों से लोगों को बड़ी उम्मीदें थीं. पर इन क्रांतिकारियों के नजदीक दिखने और मदद देने में लोग डरते थे.
सरकारी खजाने की लूट का मकसद था हथियारों के लिए धन जुटाना
हिंदुस्तान रिपब्लिकन असोसिएशन से जुड़े क्रांतिकारियों ने सरकारी खजाना लूटने की योजना बनाई. 9 अगस्त 1925 की शाम उनका एक दल लखनऊ से सहारनपुर पैसेंजर ट्रेन पर सवार हुआ. तय योजना के मुताबिक वे काकोरी स्टेशन पर उतरे. वहां से आठ डाउन पैसेंजर पर चढ़े. तब तक अंधेरा हो चला था. अशफ़ाक उल्ला, राजेन्द्र लाहिड़ी और शचीन्द्र नाथ बक्शी सेकेंड क्लास के डिब्बे में थे. किसी निर्जन स्थान पर उन्हें जंजीर खींचनी थी. बाकी सात चन्द्रशेखर आजाद, पंडित राम प्रसाद बिस्मिल, केशव चक्रवर्ती, मुरारी लाल,बनवारी लाल और मुकुन्दी लाल के लिए अलग जिम्मेदारियां थीं. इंजन ड्राइवर,गार्ड और खजाने को कब्जे में लेने में लगने वाले साथियों के अलावा शेष को गाड़ी के दोनों ओर पहरा देना था.
गाड़ी के रुकते ही ड्राइवर और गार्ड को धमका कर पेट के बल लिटा दिया गया. तिजोरी नीचे गिराई गई. हथियार लहराते क्रांतिकारियों ने यात्रियों से कहा कि वे सिर्फ़ सरकारी खजाना लूटेंगे. कोई यात्री गाड़ी से उतरने की कोशिश न करे. दहशत कायम रखने के लिए बीच-बीच में फायर किये जाते रहे. चेतावनी के बाद भी एक यात्री अपने डिब्बे से नीचे उतरा. उसकी गोली लगने से मौत की खबर अगले दिन क्रांतिकारियों को मिली. वजनी तिजोरी पर छेनी-हथौड़ी के प्रहार बेअसर नजर आ रहे थे. अशफ़ाक उल्ला ने माउजर मन्मथनाथ गुप्त को सौंप पहरे पर लगा दिया. अब राम प्रसाद बिस्मिल के साथ अशफ़ाक भी तिजोरी पर घन चला रहे थे. आखिर तिजोरी का मुंह खुला. रुपये समेटे गए.
21 अभियुक्तों में शामिल चंद्रशेखर आजाद नहीं पकड़े जा सके थे
ट्रेन डकैती से ब्रिटिश शासन बौखला गया. उसने इसे सामान्य वारदात के तौर पर नहीं लिया. ट्रेन लूटे जाने के दौरान क्रांतिकारियों ने जिस तरीके से यात्रियों को मुक्त रखते हुए अपना मकसद बताया था, उससे इसे राजनैतिक श्रेणी में रखा गया. गुप्तचर इकाई तेजी से हरकत में आई. क्रांतिकारियों की निगरानी शुरु हुई. क्रांतिकारी चौकन्ने थे लेकिन उनके छिपने के ठिकाने सीमित थे. ट्रेन डकैती के 47वें दिन 26 सितम्बर को कई जिलों में गिरफ्तारियां हुईं. डकैती में भले दस ही लोग शामिल थे, लेकिन पुलिस के निशाने पर चालीस युवक थे. बाद में 21 को मुल्जिम बनाया. चन्द्रशेखर आजाद और कुंदन लाल गुप्त को पुलिस आखिर तक नहीं पकड़ सकी.
बचाव में जबरदस्त पैरवी लेकिन अदालत थी सरकारी दबाव में
लखनऊ में अब जिस इमारत में जी.पी.ओ. है, वहां जज हेमिल्टन की अदालत में काकोरी कांड का मुकदमा चला. बचाव में गोविन्द बल्लभ पन्त, चन्द्र भानु गुप्त, वी.के.चौधरी और आर.एफ.बहादुर आदि ने क्रांतिकारियों की जबरदस्त पैरवी की. पर अदालत सीधे सरकारी दबाव में थी. 6 अप्रैल 1927 को मुकदमे का फैसला हुआ. राम प्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक उल्ला, राजेन्द्र लाहिड़ी और रोशन सिंह को फांसी की सजा सुनाई गई.
शचीन्द्रनाथ सान्याल को काला पानी. मन्मथनाथ गुप्त और शचीन्द्र नाथ बक्शी को 14 साल की उम्र कैद. जोगेश चटर्जी, मुकुन्दीलाल,गोविंद चरण कर, राज कुमार सिन्हा तथा राम कृष्ण खत्री को दस-दस साल, विष्णु शरण दुबलिस, सुरेन्द्र भट्टाचार्य को सात-सात साल, भूपेन्द्रनाथ सान्याल,राम दुलारे त्रिवेदी को पांच-पांच साल का कठोर कारावास दिया गया. इकबाली गवाह बनने के बाद भी बनवारी लाल को पांच साल की सजा हुई. सात लोगों की सजा के खिलाफ़ सरकार अपील में गई. ये थे सर्वश्री जोगेश चटर्जी, गोविंद चरण कर, मुकुन्दीलाल,सुरेश चन्द्र भट्टाचार्य, विष्णुशरण दुबलिस तथा मन्मथनाथ गुप्त. कम उम्र के आधार पर मन्मथनाथ की सजा नही बढ़ी. शेष दस साल की सजा पाने वालों की काला पानी कर दी गई. जिनकी सात साल थी, उसे दस साल कर दिया गया
बिस्मिल, अशफ़ाक, रोशन और लाहिड़ी को दी थी फांसी
अंग्रेजों ने काकोरी कांड को हुकूमत के खिलाफ़ खुली बगावत माना था. वह क्रांतिकारियों को कड़ी से कड़ी सजा देकर उस रास्ते चलने वालों को सबक सिखाना चाहती थी. जनता के बीच इन क्रांतिकारियों के प्रति बढ़ता सम्मान और लगाव सरकार के लिए खतरे की घंटी थी. चार क्रांतिकारियों की फांसी रोकने की तमाम कोशिशें नाकाम हो गईं. 17 दिसम्बर 1927 को सबसे पहले राजेन्द्र लाहिड़ी को गोंडा जेल में फांसी हुई. रोशन सिंह को 19 दिसम्बर को इलाहाबाद की साउथ मलाका जेल में फांसी पर चढ़ाया गया. इसी दिन राम प्रसाद बिस्मिल को गोरखपुर जेल में और अशफ़ाक उल्ला को फैजाबाद जेल में फांसी हुई.
अशफ़ाक ने दिखाया मुसलमान भी बलिदान दे सकते हैं
16 दिसम्बर 1927 को बिस्मिल का लिखा लेख “निज जीवन घटा” बाद में गोरखपुर के “स्वदेश”अखबार में छपा. बिस्मिल ने लिखा था, “अशफ़ाक उल्ला को सरकार ने राम प्रसाद का दायां हाथ बताया है. अशफ़ाक कट्टर मुसलमान होते हुए भी राम प्रसाद जैसे कट्टर आर्यसमाजी का क्रांति में दाहिना हाथ हो सकता है, तो क्या भारत के अन्य हिन्दू-मुसलमान आजादी के लिए अपने छोटे-मोटे लाभ भुला एक नही हो सकते? अशफ़ाक तो पहले ऐसे मुसलमान हैं, जिन्हें कि बंगाली क्रांतिकारी पार्टी के सम्बन्ध में फांसी दी जा रही है. ईश्वर ने मेरी पुकार सुन ली. मेरा काम खत्म हो गया. मैंने मुसलमानों से एक नौजवान को निकालकर हिन्दुस्तान को दिखा दिया कि मुस्लिम नौजवान भी बढ़-चढ़ कर देश के लिए बलिदान दे सकते हैं.
अशफ़ाक ने कहा, जो किया देश की आजादी के लिए किया
22 अक्टूबर 1900 को शाहजहांपुर के एक जमींदार परिवार में जन्मे अशफ़ाक उल्ला अपने स्कूली जीवन में ही देश की आजादी के सपने देखने लगे थे. सातवें दर्जे की पढ़ाई के दौरान पुलिस ने उनके स्कूल के विद्यार्थी राजा राम भारती को मैनपुरी षड्यंत्र मामले में बंदी बनाया. उससे प्रेरित अशफ़ाक जल्द ही क्रांतिकारी पंडित राम प्रसाद बिस्मिल के संपर्क में आए और फिर देश के लिए कुर्बानी के रास्ते पर निकल पड़े. फांसी से तीन दिन पहले 16 दिसम्बर को अशफ़ाक उल्ला ने लिखा था, “भारतमाता के रंगमंच पर हम अपनी भूमिका अदा कर चुके. गलत किया या सही,जो भी किया आजादी हासिल करने के लिए किया. हमारी निन्दा करें या प्रशंसा, लेकिन हमारे दुश्मनों तक को हमारी वीरता की प्रशंसा करनी पड़ी है.
लोग कहते हैं कि हमने देश में आतंकवाद फैलाना चाहा है, यह गलत है. हम तो आजादी लाने के लिए देश में क्रांति लाना चाहते थे. जजों ने हमे निर्दयी, बर्बर, मानव कलंकी आदि विशेषणों से याद किया है. इन शासकों की कौम के जनरल डायर ने निहत्थों पर गोलियां चलायी थीं… और चलायी थीं, बच्चों-बूढ़ों और स्त्री-पुरुषों पर. इंसाफ़ के इन ठेकेदारों ने अपने इन भाई-बंधुओं को किस विशेषण से सम्बोधित किया था? फिर हमारे साथ ही यह सलूक क्यों? हिंदुस्तानी भाइयों! आप चाहे किसी धर्म-सम्प्रदाय के मानने वाले हों, देश के काम में साथ दो. व्यर्थ आपस में न लड़ो.रास्ते चाहे अलग हों लेकिन मंजिल सबकी एक है. फिर लड़ाई-झगड़े क्यों ? एक होकर मुकाबला करो और अपने देश को आजाद कराओ. अन्त में सभी को मेरा सलाम. हिन्दुस्तान आजाद हो. मेरे भाई खुश रहें.
रख दे कोई जरा सी ख़ाक ए वतन कफ़न में
फांसी से पहले अशफ़ाक उल्ला ने लिखा था,
तंग आकर हम भी उनके जुल्म के बेदाद से.
चल दिए सूए अदम जिन्दाने फैजाबाद से ..
वतन हमेशा रहे शादकाम और आजाद.
हमारा क्या है, हम रहें, रहें – रहें न रहें ..
फांसी के फंदे की ओर बढ़ते अशफ़ाक उल्ला ने कहा,”मेरे हाथ इंसानी खून से नही रंगे हैं. मुझ पर जो इल्जाम लगाया गया है, वह गलत है. खुदा के यहां मेरे साथ इंसाफ़ होगा. बगल में कुरान शरीफ़ लटकाए अशफ़ाक उल्ला कलमा पढ़ते जा रहे थे. मुस्कुराते हुए उन्होंने फांसी के फंदे को चूमा…और उनकी आखिरी ख्वाहिश सिर्फ इतनी थी,
कुछ आरजू नहीं है, है आरजू तो ये,
रख दे कोई जरा सी ख़ाक ए वतन कफ़न में.
शुरुआती ना नुकुर के बाद शहीद अशफ़ाक उल्ला का शव शाहजहांपुर ले जाने की इजाजत मिली. आखिरी यात्रा में उमड़ी भीड़ में किसी की जाति-धर्म का पता नहीं था! सिर्फ और सिर्फ सब भारतवासी थे…और उनकी इकलौती चाहत थी… अंग्रेजों की गुलामी से निजात ….!
धन्यवाद: https://www.tv9hindi.com/knowledge/ashfaqulla-khan-birth-anniversary-2022-interesting-facts-about-independence-activist-and-co-founder-of-the-hindustan-republican-association-au256-1519150.html