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फरीदाबाद: 50 साल पुरानी मस्जिद गिराने पर सियासी-सामाजिक बहस तेज, स्थानीयों का सवाल—”क्यों उजाड़ा हमारा साथ?”

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फरीदाबाद नगर निगम की ओर से मंगलवार को शहर के एक पुराने मोहल्ले में अवैध निर्माण के आरोप में 50 वर्षीय मस्जिद और आसपास के ढांचों को बुलडोजर से गिरा दिया गया। निगम अधिकारियों ने इस कार्रवाई को सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का पालन बताया, लेकिन स्थानीय निवासियों ने बिना सूचना के हुए ध्वंस को “अमानवीय” और “एकतरफा” करार देते हुए विरोध प्रकट किया।

भारी पुलिस बल के बीच हुई कार्रवाई
इस ऑपरेशन के दौरान तीन एसीपी स्तर के अधिकारियों की मौजूदगी में करीब 250 पुलिसकर्मियों ने मोहल्ले को घेरा। बुलडोजर से न केवल मस्जिद, बल्कि आसपास के कई आवासीय ढांचों को भी ध्वस्त कर दिया गया। निगम का दावा है कि यह इलाका सार्वजनिक भूमि पर अतिक्रमण का था, जिसे कोर्ट के आदेशानुसार हटाया गया।

‘जिंदगी बर्बाद हो गई’, निवासियों ने जताया गुस्सा
न्स्थायूज़ 18 की रिपोर्नीट के मुताबिक़, स्थानीय लोगों ने आरोप लगाया कि उन्हें ध्वस्त होने से पहले कोई नोटिस या चेतावनी नहीं दी गई। “हम 50 साल से यहां रह रहे हैं। अचानक पुलिस और बुलडोजर आ गए। सामान तक नहीं निकालने दिया। अब रहने को छत नहीं, बच्चों की पढ़ाई बाधित,” 65 वर्षीय असगरी ने आंसू भरी आवाज में बताया।

मस्जिद नहीं, शिक्षा और आस्था का केंद्र था
मामले ने तूल पकड़ा तो इसलिए कि ध्वस्त मस्जिद के परिसर में गरीब बच्चों को निशुल्क शिक्षा दी जाती थी। साबरा बानो नामक एक शिक्षिका ने कहा, “यह सिर्फ इबादत की जगह नहीं थी। यहां बच्चे पढ़ते थे, महिलाएं सिलाई सीखती थीं। अब सब कुछ मलबे में तब्दील है। पहले भी 2015 में हमें उजाड़ने की कोशिश हुई थी, लेकिन इस बार सबकुछ तहस-नहस कर दिया।”

सुप्रीम कोर्ट में लंबित मामला, जनाक्रोश बढ़ा
हालांकि यह मामला अदालत में विचाराधीन है, लेकिन कार्रवाई के तरीके को लेकर सवाल उठ रहे हैं। स्थानीय नेता और समाजसेवी अब प्रशासन के खिलाफ कार्रवाई की मांग कर रहे हैं। जिला प्रशासन ने अभी तक निवासियों के पुनर्वास या मुआवजे पर कोई बयान नहीं दिया है।

निगम का पक्ष
नगर निगम के अधिकारी राकेश मीणा ने मीडिया से कहा, “यह अतिक्रमण हटाने की कानूनी प्रक्रिया थी। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद ही यहां एक्शन लिया गया। हमने पहले भी नोटिस जारी किए थे।” हालांकि, निवासी इस दावे को खारिज करते हुए कहते हैं कि उन्हें कभी कोई लिखित सूचना नहीं मिली।

फिलहाल, मलबे के बीच खड़े परिवारों का सवाल है — क्या कानून का पालन कराने के नाम पर मानवीय संवेदनाओं और संवैधानिक अधिकारों की अनदेखी जायज है?

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