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पुलिस हिरासत में मौत क्या किसी समाज के लिए एक सामान्य बात है?

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एक दिन अचानक पुलिस आपके दरवाजे पर दस्तक देती है… आपके भाई, पिता, चाचा या किसी रिश्तेदार को पूछताछ के लिए थाने लाती है… और इसके बाद अगली सुबह आपको उस ज़िंदा की शख़्स की लाश मिली… कल जो शख़्स घर की दहलीज से ज़िंदा गया था… आज उसकी लाश पुलिस थाने में पड़ी है… घबराइए नहीं… यह कोई फिल्मी कहानी नहीं बल्कि एक कड़वी सच्चाई है… हिरासत में होती मौतों पर सवाल है… यह सवाल इसलिए कि आखिर एक रात के अंदर ऐसा क्या होता है… जो एक ज़िंदा शख़्स रात के अंधेरे में मौत की नींद सो जाता है..

पुलिस हिरासत में मौत क्या किसी समाज के लिए एक सामान्य बात है?

सभ्य समाज में पुलिस द्वारा किसी व्यक्ति को हिरासत में मार डालना एक नार्मल बात है?

क्या किसी भी व्यक्ति को पूछताछ के लिए बुलाना फिर अगले दिन उसकी मृत्यु एक समान्य घटना है?

यह वह सवाल है जिसने मौजूदा समय में भारतीय समाज को झकझोर कर रख दिया है. पुलिस द्वारा पावर का खतरनाक इस्तेमाल कैसे आम इंसानों की हिरासत में मौत की वजह बन रहा है इसको डिटेल से समझने के लिए आपको यह वीडियो जरूर देखनी चाहिए.

भारत का लोकतंत्र न्यायपालिका, विधान पालिका और कार्यपालिका 3 पिलर के इर्द घूमता है. पुलिस हिरासत में मौत इसी लोकतंत्र के माथे पर वह धब्बा है जिसकी कबूलियत किसी भी कीमत पर एक सभ्य समाज में नहीं होनी चाहिए। सिंघम की छवि समाज को एक पुलिस स्टेट में तब्दील करती है जो सत्ता और प्रशासन दोनों के निरंकुश होने की पहली सीढ़ी होता है.  

पुलिस ने पूछताछ के लिए किसी व्यक्ति को बुलाया और अगले दिन वह मृत्य पाया गया. इसको आप क्या कहेंगे? पुलिस हिरासत में मौत थर्ड डिग्री से मौत कार्यपालिका के पावर के नशे को दर्शाने के लिए काफी है. सबसे हैरान करने की बात तो यह है कि  दोषी के खिलाफ इन्क्वाइरी भी वही लोग करते हैं तो आप ऐसी मौतों में क्या न्याय की उम्मीद करेंगे. 

कुछ दर्द भरी सत्य घटनायें सुनिए और खुद तय करिये कि इन सभी मामलों में कौन दोषी है और एक सभ्य समाज में ऐसी घटनाओं का लगातार होना कितना खतरनाक हो. 

कुछ दिन पहले की एक दैनिक भास्कर की खबर है कि कानपुर के कल्याणपुर इलाके में जितेंद्र सिंह उर्फ कल्लू को पुलिस ने चोरी के एक मामले में जांच पड़ताल के लिए थाने पर बुलाया और 15 नवंबर को कल्लू की मौत हो गई. घरवालों ने आरोप लगाया कि पुलिस द्वारा हत्या की गई है. कल्लू की पीठ और शरीर के बाकी हिस्से पिटाई की वजह से नीले पढ़ चुके थे मगर हैरानी की बात देखिए पोस्टमार्टम में डॉक्टरों ने किसी भी बाहरी चोट का ज़िक्र नहीं किया है. 

जब मामले में लोगों की तरफ से दबाव बढ़ना शुरू हुआ तो पुलिस के अधिकारियों ने जांच कमेटी बैठाई। इस पूरे मामले में एक इंटरेस्टिंग फैक्ट देखिएगा कि जब कल्लू को रात के 10:30 बजे चौकी से उनका परिवार लाया था जब उसकी हालत बहुत खराब थी. उसे इतना पीटा गया था कि वह ठीक से चल भी नहीं पा रहा था मगर जब पुलिस जांच हुई तो उन्होंने इसमें से उसको पीटे जाने के तथ्य ही गायब कर दिए.

परिवार ने अपने बयान में कहा था कि कल्लू को 14 नवंबर को पुलिस उठाकर ले गई और 15 नवंबर को उसकी मौत हो गई. आप अंदाजा लगाइए की पुलिस की मार की वजह से एक व्यक्ति मारा जाता है. मगर वह व्यक्ति पुलिस थाने में नहीं मरा था इसलिए पुलिस ने इस जांच में यह कह दिया की मौत सामान्य है ना कि एक हिरासत में हुई मौत.

यह कोई इकलौता मामला नहीं है. कुछ दिन पहले आपको एक फेमस केस याद होगा कासगंज जिले का. ABP न्यूज़ की रिपोर्ट के मुताबिक 9 नवंबर 2021 को कासगंज कोतवाली में अल्ताफ नामक लड़के की पुलिस टॉर्चर से मौत हो गई थी. वह अलग बात है कि पुलिस ने दावा किया था कि अल्ताफ ने थाने के टॉयलेट में टोटी में जैकेट की डोरी से लटककर आत्महत्या कर ली थी. पुलिस ने अल्ताफ को एक लड़की के लापता होने के मामले में पूछताछ के लिए बुलाया था और अगले दिन अल्ताफ का शव कासगंज थाने में टॉयलेट में मिला था.

हैरानी की बात तो यह है कि जब परिवार ने पुलिस पर हत्या का आरोप लगाया पुलिस ने ऐसा प्रेशर बनाया उनके पिता से अंगूठा लगवा कर पुलिस को क्लीन चिट दिलवा दी गयी और कहा कि उनके बेटे ने आत्महत्या ही की थी.

पुलिस के इस रवैये को देखते हुए अल्ताफ के पिता ने हाईकोर्ट का रुख इख़्तेयार किया तो न्यायालय ने पूरे मामले में कड़ा रुख अपनाते हुये मामले के तीन महीने बाद अल्ताफ के शव को कब्र से निकालकर एम्स के डॉक्टर्स की टीम द्वारा वीडियो ग्राफी में अल्ताफ का दोबारा पोस्टमार्टम करवाने का आदेश दिया था. 

इंडिया टुमारो की एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक उत्तर प्रदेश के कुशीनगर ज़िले के पडरौना कसबे में 20 दिसंबर को एक 25 वर्षीय युवक अख़्तर हुसैन की पुलिस हिरासत में हत्या का मामला सामने आया है. मृतक के परिवार ने इस मामले में पुलिस पर कई संगीन आरोप लगाए हैं जिनमें अख़्तर को प्रताड़ित करने, रिश्वत मांगने और हिरासत में हत्या करने जैसे आरोप शामिल हैं. सभी मामलों की तरफ इस मामले में भी पुलिस ने इस खबर का खंडन करते हुए मामले को भ्रामक बताया है. 

मृतक के परिवार के द्वारा इंडिया टुमारो को दिखाए गए वीडियो और अन्य साक्ष्यों के अनुसार मृतक अख्तर हुसैन के शरीर पर कई जगह गंभीर चोट के निशान थे. मृतक के शरीर पर चोट के निशान उसके साथ बुरी तरह मार पीट किए जाने की पुष्टि कर रहे थे.

वीडियो में साफ़ देखा जा सकता है कि मृतक अख्तर का पैर टूटा हुआ था, दोनों घुटने चोट के कारण काले पड़ गए थे, सर पर गंभीर चोटें थीं, कंधे पर भी गहरा ज़ख्म था. अख्तर के पैर के तलवे में ब्लेड से काटे जाने का ज़ख्म था जो वीडियो में मौजूद है.

यदि अख्तर की मौत सामान्य थी या अचानक बीमार होने के बाद मौत हो गई तो उसके शरीर पर गंभीर चोट के निशान कैसे आए? उसके घुटने कैसे टूटे, पीठ पर ज़ख्म कैसे आया और पैरों में ब्लेड से काटे जाने के गहरे निशान कैसे पड़े?

क्या अख्तर के साथ जेल में मार पीट की गई? उसे पुलिस ने मारा या किसी दूसरे क़ैदी ने मारा? ये सवाल परिवार भी उठा रहा है और ये स्वाभाविक सवाल हैं जिसे घटना को जानने वाला कोई भी व्यक्ति सबसे पहले करेगा. निश्चित रूप से यह जाँच का विषय है.

ऐसी हजारों कहानियां हैं 

जिनको अगर मैं सुनाने बैठूंगा तो मोटी मोटी किताबें भी खत्म हो जाएँगी. असल मामले पर आते हैं कि आखिर एक सभ्य समाज में पुलिस हिरासत में थर्ड डिग्री का क्या काम है? पुलिस को इतनी पावर कहाँ से आती है कि वह किसी भी व्यक्ति को कभी भी उठा ले उसे मारे-पीटे, यहां तक कि उसकी मौत हो जाए. 

सबसे खास बात यह है कि यह सब मामलों में पुलिस के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती कार्रवाई तो छोड़िए दूर की बात है उसी थाने के खिलाफ जिसके खिलाफ कंप्लेंट है उसकी इंक्वायरी वही थाना करता है जो खुद आरोपी है. जब आरोपी ही अपने ऊपर जांच कर रहा है तो उसका क्या ही नतीजा निकलेगा।

आपको मालूम है पुलिस हिरासत में हुई मौतों के मामले में दो राज्य सबसे ऊपर हैं जिनको कथित तौर पर इस समय देश में मॉडल स्टेट के तौर पर पेश किया जाता है. 

आपके दिमाग ने सही अंदाजा लगाया मैं उत्तर प्रदेश और गुजरात की ही बात कर रहा हूँ. हिरासत में हुयी अधिकतर मौतें इन्हीं राज्यों में ही रिकॉर्ड की गयी हैं. यह हाल तब है जब हिरासत में हुई मौतों का सरकारी तौर पर रिकॉर्ड में गिनती बेहद काम है ज्यादातर मामलों को पुलिस के दबाव में तो रफा-दफा ही कर दिया जाता है.

पुलिस हिरासत में मौत के मामले में गुजरात पूरे देश में सबसे फर्स्ट है. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो ने 2021 की रिपोर्ट में बताया है कि पुलिस हिरासत में हुई मौतों के मामले में गुजरात देश के सभी राज्य में अव्वल है. 2021 में देश भर में कस्टोडियल डेथ के कुल 88 मामले दर्ज किए गए और वही गुजरात में इन मामलों की गिनती 23 है. 

‘यूपी नंबर 1’, हाल के दिनों यह लाइन और इससे जुड़े पोस्‍टर-विज्ञापन बहुतायत में देखने को मिल रहे हैं। उत्‍तर प्रदेश के अलग-अलग पहलुओं पर नंबर वन होने की कहानियां इसमें बताई जाती हैं, लेकिन इन कहानियों के इतर प्रदेश कुछ ऐसे मामलों में भी नंबर वन है जिनका जिक्र नहीं होता, जैसे – हिरासत में मौत के मामलों में उत्‍तर प्रदेश नंबर वन है।

जनसत्ता में पब्लिश यह आंकड़ा 

किसी भी आदर्श समाज को विचलित करने के लिए काफी है कि पिछले बीस साल में हिरासत में 1888 मौतें हुयी हैं, 893 केस पुलिसकर्मियों के खिलाफ दर्ज हुए मगर दोषी साबित हुए केवल 26 पुलिसवाले। 

यूपी के पूर्व डीजीपी प्रकाश सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस से कहा था कि “पुलिस के कामकाज में खामियों को स्वीकार किया जाना चाहिए और उन्हें ठीक किया जाना चाहिए। 20 वर्षों में हिरासत में होने वाली 1,888 मौतें भारत के आकार और आबादी वाले देश के लिए कोई बड़ी संख्या नहीं है। लेकिन जो महत्वपूर्ण है, वह यह है कि पुलिसकर्मी थर्ड-डिग्री तरीकों का इस्तेमाल करते हैं, हिरासत में एक व्यक्ति को चोट पहुंचाते हैं। यह गलत प्रथा है। पुलिसकर्मियों को संवेदनशील और शिक्षित करने की जरूरत है, उन्हें जांच के वैज्ञानिक तरीकों और उचित पूछताछ तकनीक पर भरोसा करना चाहिए।” 

यह हमारे भारतीय समाज के लिए एक कटु सत्य है कि पुलिस का रवैया आम नागरिकों के लिए बिलकुल भी दोस्ताना नहीं है. बल्कि लोग तो पुलिस के मामलों में पड़ने से भागते है. पुलिस का भी लोगों को प्रताड़ित करने वाला मिज़ाज लोगों के अंदर भय को और पुख्ता करता जा रहा है. 

अब आप खुद अंदाजा लगा लीजिये कि ऐसे हालात में कोई व्यक्ति पुलिस के खिलाफ क्या ही आवाज़ बुलंद करेगा. इससे भी आगे बढ़ कर जब ऐसे मामले हो जायेंगे तो क्या पुलिस ऐसे मामलों को दर्ज़ होने देगी. पुलिस अपने ही खिलाफ FIR इतनी आसानी से तो नहीं होने देगी.

बड़ी बात तो यह है कि इन मामलों में पुलिस कर्मियों का दोषी साबित होना किसी अजूबे से कोई कम नहीं है. क्यूंकि इन मामलों में क़ानूनी पेचीदगियां इतनी है कि बड़ों बड़ों का पसीना छूट जाये. इसी लिए अधिकतर मामलों में केस रफा दफा ही होते देखे गए हैं. 

अगर मुसलमानों की पुलिस में भागीदारी की बात की जाये तो 

NCRB की एक रिपोर्ट से साफ़ तौर पर पता चलेगा कि पूरे भारत में सभी राज्यों के 1580311 पुलिस कर्मियों में से केवल 109262 पुलिस कर्मी ही मुस्लिम है जो 6.91% फीसदी होते हैं. अगर इस आंकड़ें में से जम्मू कश्मीर के 44457 मुस्लिम पुलिस कर्मचारियों को निकाल दें तो यह आंकड़ा केवल 64805 रह जायेगा. जो केवल 4.31 फीसदी होता है. अब आप खुद अंदाजा लगा लीजिये जब मुसलमानों की पुलिस में न के बराबर भागीदारी होगी तो पुलिस पर समुदाय विशेष के खिलाफ नफरती होने के इल्जाम तो लगते ही रहेंगे. यहाँ ध्यान दीजियेगा कि NCRB ने 2013 के बाद से यह आंकड़ा देना ही बंद कर दिया है. 

NCRB Data 2010
Total Police Personnels 1580311
Total Muslim Police Personnel 109262 (6.91%)
without J&K (44457/77012)
Total Police Personnels 1503299
Total Muslim Police Personnel 64805 (4.31%)

मौजूदा समय में सबसे बड़ी जरूरत यह है कि पुलिस रिफॉर्म्स पर खुल कर और बड़े पैमाने पर बात हो. 

अगर इसी तंत्र के साथ मामलात चलते रहे तो पुलिस हिरासत में होने वाली मौतों में आगामी दिनों में भी कोई कमी नहीं आएगी. इससे भी अहम बात यह है कि पुलिस पर राजनीतिक दबाव या सीधा कहे तो सत्ताधारी पार्टी का दबाव ज्यादातर मामलों के जन्म लेनी की वजह है. ज्यादातर मामलों में देखा गया है कि सत्ताधारी पार्टी अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए पुलिस के ऐसे मामलों में शामिल होने का अहम कारण होती है. सिंघम और दरोगा की फीलिंग पुलिस के निरंकुश की वजह में से सबसे बड़ी वजह होती है. 

अगर हम लोग एक सभ्य और आदर्श समाज का निर्माण करना चाहते है तो हमें पुलिस रिफॉर्म्स और राजनीतिक बदलाव की बात बड़े पैमाने पर बुलंद तरीके से करनी होगी. आवाज़ें जितनी बुलंद होगी उतना जल्दी बातचीत शुरू होगी। तब जा कर एक समय के बाद हम इंसानों के खून से रंगें इस पुलिसिया सिस्टम में कुछ तब्दीली की उम्मीद कर पाएंगे. 

Recommendations:

  1. सरकारी संस्थाओं में मुसलमानों की भागीदारी को सुनिश्चित करने के लिए रिजर्वेशन. 
  2. सिंघम वाली छवि का जनता की तरफ से महिमामंडन और सरकारी विभागों में इनाम दिए जाने की प्रथा की रोकथाम.
  3. इन्वेस्टीगेशन और लॉ एंड आर्डर विभागों और कर्मियों को अलग अलग रखना चाहिए.
  4. पुलिस का वर्कलोड काम होना चाहिए और पुलिस फ़ोर्स में विविधता होनी चाहिये .
  5. पुलिस का विभिन्न समुदाय के अच्छे रिलेशनशिप के लिए कोशिश करने की सख्त जरूरत है.
  6. बुलडोज़र और एनकाउंटर प्रणाली को ख़त्म कर, लोकतांत्रिक व्यवस्था में सभी सरकारी संस्थाओं की भागीदारी होनी चाहिए।

धन्यवाद 

Ansar Imran SR

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