Opinion

ऐ जहाँ देख ले कब से बे-घर हैं हम…

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नजफ से करबला जानी वाली सड़क पर एक जगह निदा-उल-अक़्सा नामी मोकिब है। इस मोकिब में ज्यादातर तादाद उन लोगों की है, जो दुनिया के विभिन्न मंचों पर फ़लस्तीनियों के संघर्ष और उनके आंदोलन के झंडाबरदार रहे हैं। इस बार अरबयीन का नारा भी #كربلاءطريقالأقصى था। करबला तरीक़ुल अक़्सा! अरबी भाषा के इन तीन अल्फ़ाज़ के मायने बहुत गहरे हैं। यानी करबला ही वो रास्ता है फ़लस्तीन 🇵🇸 अल अक्सा को आज़ादी दिलाएगा। सात अक्टूबर 2023 से अब तक 41 हज़ार से ज्यादा फ़लस्तीनी शहीद हो चुके हैं, और 116 पत्रकार इस युद्ध में अब तक शहीद हुए हैं। लेकिन इसके बावजूद फ़लस्तीनियों का आंदोलन मंद नहीं पड़ा रहा है।

पत्रकार वसीम अकरम त्यागी

इराक़ के नजफ से करबला जाने वाली सड़क पर अरबयीन के लिए जाते हुए ज़ायरीन अपने साथ फ़लस्तीन का झंडा 🇵🇸 थामकर चल रहे थे। आप जिन तस्वीरों को देख रहे हैं, ये उसी रास्ते की है, जहां अहलुल बनात यूनिवर्सिटी के मुख्य द्वार पर The Global Campaign to Return to Palestine नामी संगठन फ़लस्तीन की आज़ादी के लिए अभियान चला रहा था। फ़लस्तीन में शहीद हुए फ़लस्तीनियों, योद्धाओं, और पत्रकारों की प्रदर्शनी भी लगाई हुई थी, ताकि अरबयीन पर आने वाले ज़ायरीन करबला का पैग़ाम अपने साथ लेकर जाएं, यहीं पर एक अस्थायी टीवी स्टूडियो भी है, जिस पर फ़लस्तीन की आज़ादी के लिए होने वाले कार्यक्रम का प्रसारण होता है।

अपने साथ फ़लस्तीनी झंडा लेकर चलने वाले बुज़ुर्ग, बच्चे, जवान, महिलाएं एक स्वर में अमेरिका और इज़रायल के विरोध में तो नारेबाज़ी करते ही है, साथ ही वो दुनिया में मानवाधिकारों की ठेकेदारी करने वाले देशों से भी सवाल कर रहे हैं, आख़िरा उनकी ज़मीनों से जायनिसज़्म का कब्ज़ा कब हटेगा। इसीलिए हबीब जालिब नज़्म का यह मिसरा “ऐ जहाँ देख ले कब से बे-घर हैं हम, अब निकल आए हैं ले के अपना अलम।” प्रासंगिक हो जाता है।

(लेखक जाने मानें पत्रकार हैं और हाल ही में ईराक से लौटकर आये हैं)

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